संखचूड़ तिहिं अवसर आयौ।
गोपी हुतीं प्रेम-रस-माती, तिन कछु सोध न पायौ।।
चल्यौ पराइ सकल गोपी लै, दूरि गऐं सुधि आई।
को यह लिये जात कहँ हमकौं, कृष्न कृष्न गुहराई।।
गोपी-टेर सुनत हरि पहुँचे, दानव देखि डरायौ।
मुष्टिक मारि गिराइ दियौ तिहिं, गोपिनि हरष बढा़यौ।।
मनि अमोल ताकैं सिर पाई, दई हलधरहिं आई।
सूर चले बन तैं गृह कौं प्रभु, बिहंसत मिलि समुदाई।।1208।।