आनँद-प्रेम उमंगि जसोदा, खरी गुपाल खिलावै।
कबहुँक हिलकै-किलकै जननी मन-सुख सिंधु बढ़ावै।
दै करताल बजावति, गावति, राग अनूप मल्हावै।
कबहुँक पल्लव पानि गहावै, आँगन माँझ रिंगावै।
सिव, सनकादि, सुकादि, ब्रह्मादिक खोजत अंत न पावैं।
गोद लिए ताकौं हलरावै तोतरे बैन बुलावै।
मोहे सुर, नर, किन्नर, मुनिजन, रवि रथ नाहिं चलावै।
मोहि रही ब्रज की जुवती सब सूरदास जस गावै।।130।।