सूरसागर सप्तम स्कन्ध पृ. 253

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सूरसागर सप्तम स्कन्ध-253

विनय राग

421.राग बिलावल - श्री नृसिंह अवतार
और जो मो पर किरपा करौ। तो सब जीवनि उद्धरौ।
जो कहौ, कर्म भोग जब करिहै। तब ये जीव सकल निस्तरिहैं।
मम कृत इनके बदलै लेहु। इनके कर्म समल कोहि देहु।
मोकौ नरक माहि लै डारौ। पै प्रभु जू, इनकों निस्तारौ ।
पुनि कहयौ, ‘‘जीव दुखित संसार। उपजत-बिनसत बारंबार।
बिना कृपा निस्तार न होइ। करौ कृपा, मै माँगत सोइ।
प्रभु, मै देखि तुम्है सुख पावत। पै सुर देखि सकल डर पावत।
तातै महा भयानक रूप। अंतर्धन कौर समर-भूत।
‘‘ हरि कहयौ,‘‘ मोहि बिरद लाज। करौ मन्वन्तर लौ तुम राज।
राज-लच्छमी-मद नहि होइ। कुल इकीस लौ उधरे सोइ।
जो मम भक्तके मग में जाइ। होइ पवित ताहि परसाइ।
जा कुल माहि भक्तमम होइ। सप्त पुरुष लौर उधरैं सोइ।
‘‘पुनि प्रहलाद राज बैठाए। सब असुरनि मिलि सीस नवाए।
नरहरि देखि हर्ष मन कीन्हौ। अभयदान प्रहलादहि दीन्हों।
तब ब्रह्मा विनती अनुसारी। ‘‘महाराज, परसिह, मुरारी।
सकल सुरनि कौ कारकज सरौ। अंतर्धान रूप् यह करौ।
‘‘ तब नीहरि भए अंततर्धान। राजा सौं सुक कहयो बखान।
जो यह लीला सुनै-सुनावै। सूरदास हरि भक्ति सो पावै।।2।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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