सूरसागर सप्तम स्कन्ध पृ. 252

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सूरसागर सप्तम स्कन्ध-252

विनय राग

421.राग बिलावल - श्री नृसिंह अवतार
क्रोध न गयौ, तब ऐसैं कह्मो। ‘‘छमौ प्रलय कौ समय न भयौ।
‘‘ तबहूँ गयौ न क्रोध-विकार। महादेव हू फिरे निहार।
बहुरि इंद्र अस्तुति उच्चारी। ‘‘मुयौ असुर सुर भए सुखारी।
ह्नै है जज्ञ अब देव मुरारी। छमियै क्रोध सुरनि सुखकारी।
‘‘ पुनि लछमी यौ विनय सुनाइ। ‘‘डरौ देखि यह रूप नवाई।
महाराज,यह रूप दुरावहु। रूप चतुर्भुज मोहि दिखावहु‘‘।
बरून, कुवेरादिक पुनि आइ। विनय तिनहूँ बहु भाइ।
तौहूँ क्रोध छमा नहि भयौ। तब सब मिलि प्रहलादहि कह्मो।
तुम्हरै हेत लियौ अवतार। अब तुम जाइ करौ मनुहार।
तब प्रहलाद निकट हरि आइ। करि दंडवत परयौ गहि पाइ।
तब नरहरि जू ताहि उठाइ। ह्नै कृपाल बोले या भाइ।
‘‘कहु जो मनोरथ तेरौ होइ। छाँडिं विलब करौं अब सोइ।‘‘
‘‘दीनानाथ, दयाल, मुरार। मम हित तुम लीन्हौ अवतार।
असुर असुचि है मेरो जाति। मोहि सनाथ कियौ सब भाति।
भक्त तुम्हारी इच्छा करै। ऐसे असुर किते संहरै।
भक्तनि हित तुम धारी देह। तरिहै गाइ-गाइ गुर एक।
जग प्रभुत्व प्रभु करयौ। सो मम पिता मृतकक ह्नै परयौ।
साधु-संग प्रभु मौकौ दीजै। तिहि संगति निज भक्तिकरीजै।
और न मेरी इच्छा कोइ। भक्ति अनन्स तुम्हारी होइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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