सूरसागर सप्तम स्कन्ध पृ. 254

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सूरसागर सप्तम स्कन्ध-254

विनय राग

422.राग रामकली
        पढौ भाइ, राम - मुकुंद - मुरारि।
चरन-कमल मन-सनमुख राखो, कहूँ न आवै हारि।
कहै प्रहलाद सुनौ रे बालक, लीजै जनम सुधारि।
को है हिरनकसिप अभिमानी, तुम्है सकै जो मारि।
जनि डरपौ जड़मति काहू, सौ भक्ति करौ इकसारि।
राखनहार अहै कोउ औरँ, स्याम धरे भुज चारि।
सत्य स्वरूप् देव नारायन, देखौ हृदस विचारि।
सूरदास प्रभु सब मै व्यापक, ज्यौ धरनी मै बारि।।3।।

423.राग कान्हरौ
जो मेरे भक्तनि दुखदाई।
सो मेर इहि लोक बसौ जनि, त्रिभुवन छाँडि़ अनत कहुँ जाई।
सिव-विरंच-नारद मुनि देखत, तिनहुँ न मोकौ सुरत दिवाई।
बालक अबल, अजान रहयौ वह, दिन-दिन देत त्रास अधिकाई।
खंभ फारि, गल गाजि मत्‍त बल, क्रोधमान छवि बरनि न आई ।
नैन अरून, बिकराल दसन अति, नख सो ह्नदस बिदारयौ जाई।
कर जोरे प्रहलादजो विनवै, विनय सुनौ असरन- सरनाई।
अपनी रिस निवारि प्रभु, पितु मम अपराधी , सो परम पति पाई।
दीनदयाल , कृपानिधि, नरहरि, अपनो जानि हियै जियौ लाई।
सूरदास प्रभु पूरन ठाकुर, कहौ, समल मै हूँ नियराई।।4।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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