सूरसागर षष्ठ स्कन्ध पृ. 243

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सूरसागर षष्ठ स्कन्ध-243

विनय राग

416.राग बिलावल - श्रीगुरु-महिमा
जारानी कौ तू यह दैहे। ता रानी सेती सुत है।
पटरानी कौ सो नृप दियो। जिन प्रनाम करि भोजन कियौ।
रिषि-जाचकनि तै तिन सुत जायो। सुत लहि दंपति अति सुख पायो।
बिप्र जाचकनि दीन्हौ दान। कियौ उत्सव, कहा करौ बखान।
ता रानी सौ नृप - हित भयौ। और तियनि कौ मन अति तयौ।
तिन सवहिनि मिलि मंत्र उपायो। नृपति-कुंवर कौ जहर पियायौ ।
बहुत बार भई, कुँवर न जाग्यौ। दासी सौ रानी तब माँग्यौ।
ल्याऊ कुँवर कौ बेगि जगाइ। दूध प्याइ कै बहुरि सुवाइ।
दासी कुँवर जगावन आई। देख्यौं कुँवर मृतक की नाई।
दासी बालक सृतक निहारि। परी धरनि पर खइ पछारि।
रानी तब तहँ आई धाइ। सुम मृत देखि परी मुरझाइ।
पुनि रानी जब सुरति सँभारी। रुदन करन लागी अति भारी।
रूदन सुनत राजा हेँ आयौ। देखि कुँवर कौं अति दुख पायौ।
कबहूँ मुरछित है नृप परे। कबहुंक सुत कौं अंकम भरे।
रिषि नारद, अँगिरा तहँ आए।राजा सौं वे वचन सुनाए।
को तू, को, यह, देखि विचार।स्वप्न - स्वरूप सकल संसार।
सोयो होइ सो इहि सत मानै।जो जागै सो मिथ्या जानै।
तातै मिथ्या-मोह बिसारि। श्रीभगवान-चरन उर धारि ।
हम तुम सौं पहिलैं ही कही।नृप सो बात आज भइ सही।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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