416.राग बिलावल - श्रीगुरु-महिमा
लगत त्रिसूल इंद्र मुरझायौ। कर तैं अपनौ बज्र गिरायौ।
कह्मौ असुर, सुरपति संभारि। लैं करि बज्र माहि परहारि।
जौ मरिहौं तो सुरपुर जैहौं। जीते जगत माहि जस लैहो।
हार-जीत नहिं जिय कें हाथ। कारन-करता आनहि नाथ।
हमै-तुम्हैं पुतरी कैं भाइ। देखत कौतुक विविध नचाइ।
तब सुरपति लै त्रज्र सँहारयौ। जै-जै सब्द सुरनि उच्चायौ ।
पै इंद्रहिं संतोष न भयौ। ब्राह्मन-हत्या कैं दुख तयौ।
सो हत्या तिहिं लागी धाइ। छिप्यौ सो ममलनाल मै जाइ।
सुरगुरु जाइ तहाँ तैं ल्यायौ। तासौं हरि-हित जज्ञ करायौ।
जज्ञतै हत्या गई बिलाइ। पुनि नृप भयौ इंद्रपुर आइ।
नृप यह सुनि सुक सौ यौ कही। ज्ञान बुद्धि असुरहि क्यौ भई।
सुक कह्मौ सुनौ परिच्छित राह। देहुँ तोहि बृतांत सुनाइ।
चित्रकेतु पृथ्वीपति राउ। सुत-हित भयौ तासु चित-चाउ।
जद्यपि रानी बरी अनेक। पै तिनते सुत भयौ न एक।
ता गृह रिषि अंगिरा सिघाए। अर्धासन दै तिन बैठाए।
रिषि सौं नृप निज बिथा सुनाई। होइ कहूँ, सो करौ उपाई।
रिषि कह्मो, पुत्र न तेरै होइ। होइ कहूँ, तौ करौं सोइ ।
नृप कह्मौ, एक बार सुत होइ। पाछैं होनी होइ सो होइ।
रिषि ता नृप सौ यज्ञ करायौ। दै प्रसाद यह वचन सुनायौ।