सूरसागर षष्ठ स्कन्ध पृ. 241

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सूरसागर षष्ठ स्कन्ध-241

विनय राग

416.राग बिलावल - श्रीगुरु-महिमा
जेतक सस्र सो किए प्रहार। सो करि लिए असुर आहार।
तब सुरपात मन मैं भय मान। गयौ तहाँ जहँ श्री भगवान।
नमस्कार करि बिनय सुनाई। राखि राखि असरन-सरनाई।
कह्यै भगवान, उपाय न आन। रिषो दधोचि-हाड़ लै दान।
ताकौ तू निज वज्र बनाउ। मरिहै असुर ताहि कै घाउ।
तब सुरपति रिषि कैं ढिग जाइ। करी बिनय बहु सीस नवाइ।
बहुरि कही अपनी सब कथा। हरि जो कह्यौ , कह्यौ पुनि तथा।
तिन कह्यौ देह-मोह अति भारी। सुरपति , तब यह देखि विचारो।
यह तन कयौहूँ दियौ न जावै। और देत कछु बन नहिं आवै।
पै यह अंत न रहिहै भाई। परहित देुहु तौ होइ भलाई।
तन दैवै तैं नाहिं न भजौं। जोग धारना करि इहि तजौ।
गउ चटाइ, मम त्वचा उपारौ। हाड़नि कौ तुम बज्र सँवारो।
सुरपति रिषि की आज्ञा पाइ। लिए हाड़, कियौ बज्र बनाइ।
गो-मुख असुचि तबहि तैं भयौ। रिषि सुकदेव नुपति सौं कह्मो।
इंद्र आइ तब असुर प्रचारयौ। कियौ युद्ध पै असुर न हारयौ।
इंद्र-हाथ तैं बज्र छिनाइ। मारयौ ऐरावत कौं धाइ।
ऐरावत घायल है गयो। तब वृत्रासुर को सुख भयो।
ऐरावत अमृत कैं प्याए। भयौ सचेत, इंद्र तब धाए।
बृत्रासुर कौ बज्र प्रहारयौ। तिन त्रिसूल सुरपति कौं मारयौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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