सूरसागर षष्ठ स्कन्ध पृ. 244

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सूरसागर षष्ठ स्कन्ध-244

विनय राग

416.राग बिलावल - श्रीगुरु-महिमा
नृप्कौ सुनि उपज्यौ बैराग। वन कौ गयौ राज सब त्याग।
बन मै जाइ तपस्या करी।मरि गंधवँ-देह तिन धरी।
इक दिन सो कैलास सिघयौ। सिव कौ दरसन तहँ तिहिं पायौ।
उमा नगन देखी तिहि राइ।उन दियौ साप ताहि या भाइ।
तू अब असुर-देह धरि जाइ।मेरो कह्मों न मिथ्या आइ।
उमा साप ताकौंजब दयौ।वृत्रासुर सो या विधि भयौ।
हरि की भक्ति वृथा नहिं जाइ।जन्म जन्म सो प्रकटे आइ।
तातै हरि -गुरु-सेवा कीजै। मेरौ वचन मानि यह लीजै।
ज्यौ सुक नमप सौं कहि समुझायौ। सूरदास त्यौं ही कहि गायौ।।5।।

417.राग सारंग
       गरू बिन ऐसी कौन करै!
माला-तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र घरै।
भवसागर तै बूड़ राखे, दीपक हाथ धरे।
सूर स्याम गुरु ऐसो समरथ, छिन मैं लै उधफै।।6।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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