सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 8

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 8

विनय राग


15.राग केदारौ
जन की और पति राखै।
जाति पांति-कुल-कानि न मानत, वेद-पुराननि साखै।
जिहि कुल राज द्वारिका कोन्‍हौ, सो कुल साप तै नास्‍यौ।
सोइ मुनि अंवरीष कै कारन तीनि भुवन भ्रमि त्रास्‍यौ।
जाकौ चरनोदक सिव सिर धरि, तीनि लोक हितकारी।
सोइ प्रभु पांडु-सुतनि के कारन निज कर चरन पखारी।
बारह बरस बसुदेव-देवकिहि कंस महा दुख दीन्‍हौ।
तिन प्रभु प्रहलादिहिं सुमिरत हीं नरहरि-रुप जु कीन्‍हौ।
जग जानत जदुनाथ, जिते जन निज-भुज-स्‍त्रम सुख पायौ।
ऐसौ को जु न सरन गहे तें कहत सूर उतरायौ।

16.राग केदारी
जब जब दीननि कठिन परी।
जानत हौं करुनामय जन कौ तब तब सुगम करी।
सुभा मंक्तार दुष्‍ट दुस्‍सासन द्रौपदि आनि धरी।
सुमिरत पट कौ कोट बढ़यौ तब, दुख-सागर उजरी।
ब्रह्म-बाण तै गर्भ उबारयौ, टेरत जरी जरी।
विपति-काल पांडव-बधु बन मैं राखी स्‍याम ढरी।
करि भोजन अवसेस जज्ञ कौ त्रिभुवन-भूख हरी।
पाइ पियादे धाइ ग्राह सों लीन्‍हौ राखि करी।
तब तब रच्‍छा करी भगत पर जब विपति परी।
महा मोह मैं परयौ सूर प्रभु, काहैं सुधि बिसरी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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