सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 9

Prev.png

सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 9

विनय राग


17.राग रामकली
और न काहुहि जन की पौर।
जब जब दीन दुखी मयौ, तब तब कृपा करी बलबीर।
गज बल-होन बिलोकि दसौ दिसि, तब हरि-सरन परयौ।
करुनासिंधु, दयाल, दरस दै, सब संताप हरयौ।
गोपी-ग्वाला-गाय-गोसुत-हित सात दिवस गिरि लीन्‍ह्मौ।
मागध हत्‍यौ, मुक्त नृप कीन्‍हें, मृतक विप्र सुत दीन्‍ह्मौ।
श्री नृसिंह बपु धरयौ असुर हति, भक्त-वचन प्रतिपारयौ।
सुमिरत नाम, द्रुपद-तनया कौ पट अनेक विस्‍तारयौ।
मुनि मद मेटि दास-व्रत राख्‍यौ, अंवरीष-हितकारौ।
लाखा-ग्रह तै, सत्रु सैन तै पांडव-विपति निवारी।
वरुन-पास व्रजपति मुकरायौ दावानल-दुख टारयौ।
गृह आने वसुदेव-देवकी, कंस महा खल मारयौ।
सो श्रीपति जुग जुग सुमिरन-बस, वेद बिमल जस गावै।
असरन-सरन सूर जांचत है, को अब सुरति करावै।

18.राग केदारौ
ठकुरायत गिरिधर की सांची।
कौरव जीति युधिष्ठिर-राजा, कीरति तिहूँ लोक मैं मांची।
ब्रह्म-रुद्र डर डरत काल कैं काल डरत भ्रू-भंग की आंची।
रावन सौ नृप जात न जान्‍यौ, माया विषम सीस पर नाची।
गुरु-सुत आनि दिए जमपुरे तैं बिप्र सुदामा कियौ अजाची।
दुस्‍सासन कटि-बसन छुड़ावत कुमिरत नाम द्रौपदी बांची।
हरि-चरनारविद तजि लागत अनत कहूं, तिनकी मति कांची।
सूरदास भगवंत भजत जे, तिनकी लीक चहूँ जुग खांची।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः