13.राग सारंग
गोविंद प्रीति सवनि की मानत।
जिहि जिहि भाइ करत जन सेवा, अंतर की गति जानत।
सबरी कटुक बेर तजि, मीठे चाखि, गोद भरि ल्याई।
जूठनि की कछु संक न मानी, भच्छ किए सत-भाई।
संतत भक्त-मीत हितकारी स्याम विदुर कैं आए।
प्रेम-विकल, अति आनंद उर धरि, कदली-छिकुला खाए।
कौरव-काज चले रिषि सापन, साक पत्र सु आधाए।
सूरदास करुना-निघान प्रभु, जुग जुग भक्त बढ़ाए।
14.राग रामकली
सरन गए को को न उबारयौ।
जब जब भीर परी संतनि कौं चक्र सुदरसन तहां संभारयौ।
भयौ प्रसाद जु अंवरीष कौं, दुरबासा कौ क्रोध निवारयौ।
ग्वालनि हेत धरयौ गोवर्धन, प्रकट इंद्र को गर्व प्रहारयौ।
कृपा करी प्रहलाद भक्त पर, खंभ फारि हिरनाकुस मारयौ।
नरहरि रुप घरयौ करुनाकर, छिनक माहिं उर नखनि विदारयौ।
ग्राह ग्रसत गज कौं जल बूढ़त, नाम लेत वाकौ दुख टारयौ।
सूर स्याम बिनु और फरै को, रंग-भूमि मैं कंस पछारयौ।