117.राग धनाश्री
माधौ जू जौ जन तै बिगरै।
तउ कृपाल, करुनामय केसव, प्रभु नहिं जीय धरै।
जैसै जननि जठर अंतरगत सुत अपराध करै।
तौऊ जतन करै अरु पोषै, निकसै अंक भरै।
जद्यपि मलय-वृक्ष जड़ काटै, कर कुठार पकरै।
तऊ सुभाव न सीतल छांड़ै, रिपु-तन-ताप हरै।
धर विधंसि नल करत किरषि, हल, वारि, बीज बिथरै।
सहि सम्मुख तउ सीत-उष्न कौं, कोई सुफल करै।
रसना द्विज दलि दखित हौति वह तउ रिस कहा करै।
छमि सब छोभ जु छांडि, छवौ रस लै समीप संचरै।
कारन-करन दयालु, दयानिधि, निज भय दीन डरै।
इहि कलिकाल-ब्याल-मुख ग्रासित सूर सरन उबरै।
118.राग कान्हरौ
दोन-नाथ अब बारि तुम्हारी।
पतित उधारन बिरद जानि कै, बिगरी लेहु संवारी।
बालापन खेलत ही खोयौ, जुवा विषय-रस मात्ैं।
वृद्ध भए सुधि प्रगटी मोकों, दुखित पुकारत तातैं।
सुतनि तज्यौ, तिय तज्यौ, भ्रात तज्यौ, तन तै त्वच भई न्यारी।
स्त्रवन न सुनत, चरन-गति थाकी, नैन भए जलधारी।
पलित केस, कफ कंठ विरुंध्यौ, कल न परति दिन-रती।
माया-मोह न छांडै़ तृष्ना, ये दोऊ दुख-थाती।
अब यह विथा दूरि करिवे कौं और न समरथ कोई।
सूरदास-प्रभु करुना-सागर, तुमतैं होइ सो होई।