115.राग बिलावत
अपनै जान मैं बहुत करी।
कौन भाँति हरि कृपा तुम्हारी, सो स्वामी, समुभी न परी।
दूरि गयौ दरसन के ताई, ब्यापक प्रभुता सब विसरी।
मनसा-बाचा-कर्म-अगोचर सो मूरति नहिं नैन धरी।
गुम बिन गनी, सुरुप रुप बिन, नाग बिना श्री श्याम हरी।
कृपासिंधु, अपराध अपरिमित, छमौ, सूर तैं सब बिगरी।
116.राग बिलावल
तुम प्रभु, मोसौं बहुत करी।
नर-देही दीनी सुमिरन कौं, मो पापी तै कछु न सरी।
गरभ-वास अति त्रास, अघोमुख, तहां न मेरी सुधि बिसरी।
पावक-जठर जरन नहि दीग्हौ, कंचन सी मम देह करी।
जग मैं जनमि पाप बहु कीन्हे, आदि अंत लौं सब बिगरी।
सूर पतित, तुम पतित-उधारन, अपने बिरद को लाज धरी।