सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 35

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 35

विनय राग


69.राग सूहा बिलावल
यहई मन आनंद-अवधि सब।
निरखि सरुप विवेक-नयन भारि, या सुख तैं नहि और कछू अब
चित चकार-गति करि अतिसय रति, तजि स्‍त्रम सघन विषय लोभा।
चिंति चरन-मृदु-चारु-चंद-नख, चलत चिन्‍ह चहुं दिसि सोभा।
जानु सुजधन करभ-कर-आकृति, कटि प्रदेश किंकिनि राजै।
ह्रद बिध नाभि, उदर त्रिबली वर, अवलोकत भव-भय भाजै।
उरग-इन्‍द्र उनमान सुभग भुज, पानि पदुम आयुध राजैं।
कनक-वलय, मुद्रिका मोदप्रद, सदा सुभग संतनि काजै।
उर वनमाल विचित्र विमोहन, भृगु-भंवरी भ्रम कों नासै।
तडित-वसन धन-स्‍याम सदृस तन, तेज-पुंज तम कों त्रासै।
परम रुचिर मनि-कंठ किरनि-गन, कुंडल-मुकुट-प्रभा न्‍यारी।
विधु मुख, मृदु मुसुक्‍यानि अमृत सम, सकल लोक-लोचन प्‍यारी।
सत्‍य–सील-सम्‍पन्न सुमूरति, सुर-नर-मुनि-भक्तनि भावै।
अंग-अंग-प्रति-छबि-तरंग-गति सूरदास क्‍यौं कहि आवै।

70.राग सूहा बिलावल
रे मन, आपु कौं पहिचानि।
सब जनम तैं भ्रमत खोयौ, अजहूँ तौ कछु जानि।
ज्‍यौं मृगा कस्‍तूरि भूलै, सु तौ ताकैं पास।
भ्रमत हीं वह दौरि ढूंढ़ै, जवहिं पावै बास।
भरम ही बलवंत सब मैं, ईसहू कैं भाइ।
जब भगत भगवंत चीन्‍है, भरम मन तैं जाइ।
सलिल कौं सब रंग तजि कै, एक रंग मिलाइ।
सूर जो द्वै रंग त्‍यागे, यहै भक्त सुभाइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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