67.राग केदारी
रह्यौ मन सुमिरन कौ पछितायौ।
यह तन रांचि-रांचि करि विरच्यौ, कियौ आपनौ भायौ।
मन-कृत-दोष अथाह तरंगिनि तरि नहिं सक्यौ, समायी।
मेल्यौ जाल काल जब खैच्यौ, भयो मीन जल हायौ।
कीर पढ़ावत गनि का तारी, ब्याध परम पद पायौ।
ऐसौ सूर नाहिं कोउ दूजौ, दूरि करै जम-दायौं।
68.राग केदारी
सब तजि भजिऐ नंद कुमार।
और भजे तैं काम सरै नहिं, मिटै न भव-जंजार।
जिहिं जिहिं जोनि जम धारयौ, बहु जोरयौ अघ को भार।
तिहिं काटन कौं समरथ हरि कौ तीछन नाम-कुठार।
वेद, पुरान, भागवत, गीता, रुब कौ यह मत सार।
भव-समुद्र हरि-पद-नौका बिनु कोउ न उतारै पार।
यह जिय जानि, इही छिन भजि, दिन बीते जात असार।
सूर पाइ यह समौ लाहु लहि, दुर्लभ फिरि संसार।