या बिधि राजा करयौ, बिचारि। राज साज सबहीं कौं डारि।
जीरन पट कुपीन तन धारि। चल्यौ सुरसरी, सीस उधारि।
पुत्र कलत्र देखि सब रोवैं। राजा तिनकी ओर न जोवैं।
राजा चलत चले सब लोग। दुखित भए सब नृपति-बियोग।
नृपति सुरसरी कैं तट आइ। कियौ असनान मृत्तिका लाइ।
करि संकल्प अन्न–जल त्याग्यौ। केवल हरि-पद सौं अनुराग्यौ।
अत्रि बसिष्ठादिक तहँ आए। नारदादि मुनि बहुरि सिधाए।
धन्य भाग्य, तुम दरसन पाए। मम उद्धार करन तुम आए।
तुम देखत हरि सुमिरन होइ। और प्रसंग चलै नहिं कोइ।
आज्ञा होइ करौं अब सोइ। जातैं मेरी सद्गति होइ।
कोउ कहै, तीरथ सेवन करौ। कोउ कहै, दान-जज्ञ बिस्तारौ।
काहूँ कह्यौ, सप्त दिन माँहिं। सिद्धि होति कछु दीसति नाहिं।
इहिं अंतर सुक मुनि तहँ आए। राजा देखि तुरत उठि धाए।
करि दंडवत कुसासन दीन्हौं। पुनि सनमान ऋषिनि सब कीन्हौ।
सुक कौ रूप कह्यौ नहिं जाइ। सुक–हिय रह्यौ कृष्न-रस छाइ।
सुक की महिमा सुकही जानै। सूरदास कहि कहा बखानै।।341।।