यह जुवतिनि कौ धरम न होइ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सूहो बिलावल


यह जुवतिनि कौ धरम न होइ।
विक् सो नारि पुरुष जो त्यागे, धिक् सो पति जो त्यागै जोइ।।
पति कौ धर्म यहै प्रतिपालै, जुवती सेवा ही कौ धर्म।
जुवती सेवा तऊ न त्यागै, जौ पति करै कोटि अपकर्म।।
बन मैं रैनि-बास नहिं कीजै, देख्यौ वन बृंदाबन आइ।
बिबिध सुमन, सीतल जमुना-जल, त्रिबिध-समीर-परस सुखदाइ।
घरही मैं तुम धर्म सदाई, सुत-पति होत तुम जाहु।
सूर स्याम यह कहि परमोधत, सेवा करहु जाइ घर नाहु।।1015।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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