यहई मन आनंद-अवधि सब -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सूहा बिलावल




यहई मन आनंद-अवधि सब।
निरखि सरूप विवेक-नयन भरि, या सुख तैं नहि और कछू अब
चित चकार-गति करि अतिसय रति, तजि स्‍त्रम सघन विषय लोभा।
चिंति चरन-मृदु-चारु-चंद-नख, चलत चिन्‍ह चहुँ दिसि सोभा।
जानु सुजधन करभ-कर-आकृति, कटि प्रदेश किंकिनि राजै।
ह्रद बिध नाभि, उदर त्रिबली वर, अवलोकत भव-भय भाजै।
उरग-इन्‍द्र उनमान सुभग भुज, पानि पदुम आयुध राजैं।
कनक-बलय, मुद्रिका मोदप्रद, सदा सुभग संतनि काजै।
उर वनमाल विचित्र विमोहन, भृगु-भँवरी भ्रम कों नासै।
तड़ित-वसन धन-स्‍याम सदृस तन, तेज-पुंज तम कों त्रासै।
परम रुचिर मनि-कंठ किरनि-गन, कुंडल-मुकुट-प्रभा न्‍यारी।
विधु मुख, मृदु मुसुक्‍यानि अमृत सम, सकल लोक-लोचन प्‍यारी।
सत्‍य–सील-सम्‍पन्न सुमूरति, सुर-नर-मुनि-भक्तनि भावै।
अंग-अंग-प्रति-छबि-तरंग-गति सूरदास क्‍यौं कहि आवै।।69।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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