कियौ सुरकाज गृह चले ताकै।
पुरुष औ नारि कौ भेद भेदा नहीं, कुलिन अकुलीन अवतरयौ काकै।।
दास दासी कौन प्रभु निप्रभु कौन है, अखिल ब्रह्माड इक रोम जाकै।
भाव साँचौ हृदय जहाँ, हरि तहाँ है, कृपा प्रभु कौ माथ भाग बाकै।।
दास दासी स्याम भजनहु तै जिये, रमा सम भई सो कृष्नदासी।
मिली वह 'सूर' प्रभु प्रेम चदन चरचि, कियौ जप कोटि, तप कोटि कासी।।3101।।