कथा पुरंजन की अब कहौं 3 -सूरदास

सूरसागर

चतुर्थ स्कन्ध

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राग बिलावल
पुरंजन कथा


इक दिन नृप निज मंदिर आयौ। रानी सौं अह-निसि मन लायौ।
ताके पुत्र सुता बहु भए। बिषय- बासना नाना रए।
कान लागि केसनि कहयौ जाई। जरा काल-कन्या पुर आई।
‘कहौ प्रिया, अब कीजै सोइ?‘। ‘राजा, देखि, कहा घौं होइ। ’
नगर-द्वार तिन सबै गिराए। लोगनि नृप कौं आनि सुनाए।
‘कहौ प्रिया, अब कीजै सोइ?’’राजा, देखि, कहा धौं होइ।
कान न सुनै आँखि नहिं सूझै। कहै और औरै कछु बूझै।
‘कहो प्रिया, अब कीजै सोइ?‘ देखौ नृपति, कहा धौं होइ।‘
तृष्ना करि कियौ चाहै जोग। भोग न होइ, होइ तन रोग।
‘कहौ प्रिया, अब कीजै सोइ?‘’देखौ नृपति,कहा धौं होइ।’
देह सिथिल भई, उठयौ न जाइ। मान्यौ दोन्यौ कोट गिराइ।
‘कहौ प्रिया, अब कीजै सोइ?’ ’देखौ नृपति, कहा धौं होइ।’
पुनि जुरिं दौ दीनी पुर लाइ। जरन लगे पुर-लोग लुगाइ।
कहौ, प्रिया अब कीजै सोइ?’’देखौ नृपति, काह धौं होइ।’
मरन अवस्था कौं नृप जानै। तौ हू धरै न मन में ज्ञानै।
मम कुटुंब की कहा गति होइ। पुनि-पुनि मूरख सोचै सोइ।
काल तहीं तहिं पकरि निकारयौ। सखा प्रानपति तउ न सँभारयौ।
रानी ही मैं मन रहि गयौ। मरि बिदर्भ की कन्या भयौ।
बहुरौ तिन सत-संगति पाई। कहौ सो कथा, सुनौ चित लाई।
मेघध्वज सौं भयौ बिवाह। बिष्नु भक्ति कौ तिहिं उत्साह।
ता संगति नव सुत दिन आए। स्रवनादिक मिलि हरि-गुन गाए।
इहि विधि तिन निज आयु बिताई। पूर्व-पाप सब गए बिलाई।
मरन-अवस्था जब नियराई। ईस सखा कैं मन यह आई।
बहुत जन्म इहि बहु भ्रम कोन्ह्यौ। पै इन मोकौं कबहुँ न चीन्हयौ।
तब दयालु ह्रै दरसन दीन्ह्यौ। कह्यौ, मूढ़ तैं मोहि न चीन्ह्यौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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