कथा पुरंजन की अब कहौं 2 -सूरदास

सूरसागर

चतुर्थ स्कन्ध

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राग बिलावल
पुरंजन कथा



 
आँखि, नाक, मुख, मूल दुवार। मूत्र, स्रौन, नव पुर कौ द्वार।
लिंग-देह नृप कौ निज गेह। दस इंद्रिय दासी सौं नेह।
कारन तन सो सैन-अस्थान। तहाँ अविद्या नारि प्रधान।
कामादिक पाँचौ प्रतिहार। रहैं सदा ठाढ़े दरबार।
संतोषादि न आवन पावैं।विषय भोग हिरिदै हरषावैं।
जा द्वारे पर इच्छा होइ। रानी सहित जाइ, नृप सोइ।
तहाँ-तहाँ को कोतूक देखि। मन मैं पावै हर्ष बिसेषि।
इंद्री दासी सेवा करैं। तृप्ति न होइ, बहुरि बिस्तरै।
इन इंद्रिनि कौ यहै सुभाइ। तृप्ति न होइ कितौ हूँ खाइ।
निद्रा बस जो कबहूँ सोवै। मिलि सो अविद्या सुधि-बुधि खोवै।
उनमत ज्यौं सुख-दुख नहिं जानै। जागै वहै रीति पुनि ठानै।
संत दरस कवहूँ जौ होइ। जग-सुख मिथ्या जानै सोइ।
पै कुबुद्धि ठहरान न देह। राजा कौ अंकम भरि लेइ।
राजा पुनि तव क्रीड़ा करै। छिन भरहू अंतर नहिं धरै।
जब अखेट पर इच्छा होइ। तब रथ साजि चलै पुनि सोइ।
जा बन की नृप इच्छा करै। ताही द्वार होइ निस्सरै।
चच्छ्वादिक इंद्रि दर जानौ। रूपादिक सब बन सम मानौ।
मन मंत्री सो रथ हँकवैया। रथ तन, पुन्य-पाप दोउ पैया।
अस्व पाँच ज्ञानेंद्रिय पाँच। विषय अखेटक नृप-मन राँच।
राजा मंत्री सौं हित मानै। ताकैं दुख-दुख, सुख-सुख जानै।
नरपति ब्रह्म-अंस, सुख रूप। मन मिलि परयौ दुखः कै कूप।
ज्ञानी संगति उपजै ज्ञान। अज्ञानी सँग होइ अज्ञान।
मंत्री कहैं अखेट सो करै। विषय-भोग जीवन संहरै।
निसि भएँ रानी पैं फिरि आवै। सोवति सो तिहिं बात सुनावै।
आजु कहा उद्यम करि आए। कहै वृथा म्रमिभ्रमि स्त्रम पाए।
काल्हि जाइ अस उद्यम करौं। तेरे सब भंडारनि भरौ।
सब निसि याही भाँति बिहाइ। दिन भए बहुरि अखेटक जाइ।
तहाँ जीव नाना संहरै। विषय-भोग तिनके हित करै।
बिषय-भोग कबहूँ न अघाइ। यौं ही नित-प्रति आवै जाइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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