कथा पुरंजन की अब कहौं 4 -सूरदास

सूरसागर

चतुर्थ स्कन्ध

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राग बिलावल
पुरंजन कथा


 
बिषय-भोग ही मैं पगि रहयौ। जान्यौ मोहिं और कहुँ गयौ।
मैं तो निकट सदाही रहौं। तेरे सकल दुखनि कौ दहौं।
यह सुनि कै तिहिं उपज्यौ ज्ञान। पायौ पुनि तिहिं पद-निर्वान।
यह कहि नारद नृप सौं कही। तेरी हू तैसी गति भई।
मैं जो कहयौ सो देखि बिचार। बिन हरि-भजन नाहि निस्तार।
हरि की कृपा मनुष-तन पावै। मूरख विषय हेतु सो गँवावै।
तिन अंगनि कौ सुनौ विवेक। खरचै लाख, मिलै नहिं एक।
नैन दरस देखन कौं दिए। मूढ़ देखि परनारी जिए।
स्रवन कथा सुनिबे कौं दीन्हे। तिहिं कर मूरख पर-धन लेत।
पग दिए तीरथ जैबैं काज। तिन सौं चलि नित करै अकाज।
रसना हरि-सुमिरन कौं करी। तासौं पर-निंदा उच्चरी।
यह सुनि नृप कीन्हौ अनुमान। मैं सोइ नृपति न दूसर आन।
नारद जू तुम कियौ उपकार। बूड़त मोहिं उतारयौ पार।
नृपति पाइ यह आतम-ज्ञान। राज छाँड़ि कै गयौ उद्यान।
यह लीला जो सुनै-सुनावै। सो हरि-कृपा ज्ञान कौं पावै।
सुक ज्यौं राजा कौं समुझायौ। सूरदास त्यौं ही कहि गायौ।।12।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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