उतारत हैं कंठनि तैं हार।
हरि हिय मिलत होत है अंतर, यह मन कियौ बिचार।।
भुजा बाम पर कर-छबि लागति, उपमा अंत न पार।
मनहुँ कमल-दल नाल मध्य तैं; उयौ अदभुत आकार।।
चुंबत अंग परस्पर जनु जुग, चंद करत हति-चार।
दसननि बसन चाँपि सु चतुर अति, करत रंग बिस्तार।।
गुन सागर अरु रस-सागर मिलि, मानत सुख व्यवहार।
सूर स्याम स्यामा नव रस रमि, रीझे नंदकुमार।।687।।