नवल गुपाल, नबेली राधा, नये प्रेम-रस पागे।
अंतर बन-बिहार दोउ क्रीड़त, आपु-आपु अनुरागे।
सोभित सिथिल बसन मनमोहन, सुखवत स्रम के पागे।
मानहुँ बुझी मदन की ज्वाला, बहुरि प्रजारन लागे।
कबहुँक बैठि अंस भुज धरि कै, पीक कपोलनि पागे।
अति रस-रासि लुटावत लूटत, लालचि लाल सभागे।।
नहिं छूटति रति-रुचिर भायिनो, वा रस मैं दोउ पागे।
मनहुँ सूर कल्पद्रुम की सिधि, लै उतरी फल आगे।।686।।