दिन द्वै लेहु गोविंद गाइ।
मोह-माया-लोभ लागे, काल घेरै आइ।
बारि मैं ज्यौं उठत बुदबुद, लागि बाइ बिलाइ।
यहै तन-गति जनम-झूठौ, स्वान-काग न खाइ।
कर्म-कागद बाँचि देखौ, जौ न मन पतियाइ।
अखिल लोकनि भटकि आयौ, लिख्यौ मेटि न जाइ।
सुरति के दस द्वार रूँधे, जरा घेरयौ आइ।
सूर हरि की भक्ति कीन्है, जन्म-पातक जाइ।।316।।