हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 98 श्लोक 38-57

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्‍टनवतितम अध्याय: श्लोक 38-57 का हिन्दी अनुवाद

उन चित्रक आदि वनों के वृक्षों तथा दशार्हवंशी महाभाग वीरों एवं गृहरूपी मेघों से अलंकृत द्वारकापुरी अत्‍यन्‍त शोभा पाती थी और मनोहर घन मालाओं से घिरे हुए आकाश की भाँति दिखायी देती थी। भगवान श्रीकृष्‍ण ही वहाँ इन्द्र एवं पर्जन्‍य के रूप में शोभा पाते थे। विश्वकर्मा का बनाया हुआ साक्षात भगवान वासुदेव का भवन चार योजन लम्‍बा और उतना ही चौड़ा दिखायी देता था। उसमें कितना महान धन लगा रखा था, इसका अनुमान लगाना असम्‍भव है। उस विशाल भवन के भीतर अनेकानेक सुन्‍दर महल और अट्टालिकाएं बनी थीं। वह प्रासाद जगत के सभी पर्वतीय दृश्‍यों से युक्‍त था। अथवा उसमें जगत के सुप्रसिद्ध पर्वत क्रीड़ा के लिये कृत्रिम रूप से बनाये गये थे। महाभाग विश्‍वकर्मा ने इन्‍द्र से प्रेरित होकर उसका निर्माण किया था। वह सुवर्णमय प्रासाद समस्‍त प्राणियों के लिये मनोहर था। उसके ऊँचे शिखर पर सुवर्ण मढ़ा गया था; जिससे वह मेरुपर्वत के उत्तुंग श्रृंग की शोभा धारण करता था। विश्‍वकर्मा ने उस श्रेष्‍ठ प्रासाद को महारानी रुक्मिणी के रहने के लिये बनाया था। सत्यभामा जिस भवन में निवास करती थीं, वह श्‍वेतवर्ण का था। उसमें विचित्र मणियों के सोपान बनाये गये थे। उसे सब प्रकार के भोगों से सम्‍पन्‍न समझा जाता था। निर्मल सूर्य के समान तेजस्विनी पताकाएं उस मनोरम प्रासाद की शोभा बढ़ाती थीं। जिसके बाहर-भीतर का प्रदेश प्रतिक्षण अभिनव रूप-सौन्‍दर्य से युक्‍त प्रतीत होता था और जिसमें चारों ओर बड़ी-बड़ी ध्‍वजाएं फहरा रही थीं। उस मुख्‍य प्रासाद को जाम्बवती देवी सुशोभित करती थीं, वह दूसरे सूर्य की भाँति अन्‍य सब प्रासादों को अपनी प्रभा से तिरस्‍कृत कर रहा था।

उसकी कान्ति उदयकाल के सूर्य की प्रभा के समान थी। वह रुक्मिणी और सत्‍यभामा के प्रासादों के बीच में बना था। विश्‍वकर्मा द्वारा बनाया गया वह दिव्‍य प्रासाद कैलास-शिखर के समान शोभा पाता था। भरतश्रेष्‍ठ! जो जाम्‍बनद सुवर्ण तथा प्रज्‍वलित अग्नि के समान देदीप्‍यमान था, विशालता में जिसकी समुद्र से उपमा दी जाती थी, जो मेरु के नाम से विख्‍यात होकर खड़ा था,उस महान प्रासाद में गान्‍धारराज की कुलीनकन्‍या नाग्‍नजिती सत्‍या अथवा गान्‍धारी को भगवान श्रीकृष्‍ण ने ठहराया था। पद्मकूल नाम से विख्‍यात, पद्म के समान वर्ण वाला, अत्‍यन्‍त प्रकाशमान, महान शिखर के समान ऊँचा और अत्‍यन्‍त रुचिर प्रभा से प्रकाशित जो भवन था, वह सुभीमा देवी का निवास स्‍थान बना था। नृपश्रेष्‍ठ! जो प्रासाद समस्‍त मनोवांछित गुणों से युक्‍त तथा सूर्य के समान प्रकाशमान था, उसे शारंगधन्‍वा श्रीकृष्‍ण ने लक्ष्‍मणा का आवास निश्चित किया था। भारत! जो हरित कान्ति से प्रकाशित तथा वैदूर्यमणि की-सी आभा से उद्भासित था, जिसे समस्‍त प्राणी सबसे उत्‍तम समझते थे, वह प्रासाद वासुदेव की पटरानी मित्रविन्‍दा का निवास था। देवता तथा ऋषियों के समुदाय भी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे। वह उन सभी भवनों में भूषणरूप था। द्वारका में विश्‍वकर्मा द्वारा बनाया गया जो प्रमुख प्रासाद था, जो अत्‍यन्‍त रमणीय से भी रमणीय प्रतीत होता था और पर्वत के समान खड़ा था, वह श्रीकृष्‍ण महिषी सुवार्ता का निवास भवन था। सम्‍पूर्ण देवता उसकी प्रशंसा करते थे। वह केतुमान नाम से विख्‍यात था। जो सभी प्रासादों में श्रेष्‍ठ था, जिसे साक्षात विश्‍वकर्मा ने बनाया था, जिसकी लम्‍बाई-चौड़ाई एक-एक योजन थी, जो सभी रत्‍नों द्वारा निर्मित एवं शुभ-स्‍वरूप था, वह उत्‍तम प्रभा से युक्‍त कान्तिमान प्रासाद वहाँ ‘विरजा’ नाम से विख्‍यात होकर बड़ी शोभा पा रहा था। उसी में महात्‍मा केशव का उपस्‍थान गृह था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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