हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टनवतितम अध्याय: श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवादसुकक्ष पर्वत के चारों ओर रुद्राक्षों से सुशोभित वन, बीजकवन, मन्दार वृक्षों से सुशोभित मन्दारवन, शतावर्तवन तथा करवीराकर नामक वन सुशोभित होते थे। वेणुमान पर्वत के सब ओर चैत्ररथवन, नन्दन नामक महान वन, रमणवन तथा भावन नामक वन शोभा पाते थे। भारत! वहाँ वैदूर्यमणिमय पत्र वाले कमलों से सुशोभित मन्दाकिनी नदी पुरी की पूर्व दिशा में एक रमणीय पुष्करिणी के रूप में शोभा पाती थी। विश्वकर्मा से प्रेरित होकर भगवान केशव का प्रिय चाहने वाले बहुत-से देवगन्धर्व वहाँ के पर्वतीय शिखरों की शोभा बढ़ाते थे। पुण्यसलिला महानदी मन्दाकिनी पचास बड़े-बड़े स्त्रोतों द्वारा द्वारकावासियों को प्रसन्न करती हुई सब ओर से उस पुरी में प्रविष्ट हुई थी। द्वारकापुरी कितनी बड़ी है, इसका कोई माप नहीं था। उसकी ऊँचाई भी बहुत अधिक थी। वह अगाध खाइयों से घिरी हुई थी। सुन्दर परकोटे उसे शोभासम्पन्न कर रहे थे। उस पुरी की दीवारों को चून से लीपकर श्वेत बनाया गया था। भगवान ने द्वारकापुरी को तीखे यन्त्र शतघ्नी और सोने की जालियों से विभूषित देखा। वह लोहे के बड़े-बड़े चक्रों से सुरक्षित थी। देवताओं के नगर की भाँति द्वारकापुरी में क्षुद्रघण्टिकाओं से युक्त आठ हजार रथ शोभा पाते थे, जिनमें ऊँची उठी हुई पताकाएं फहरा रही थीं। द्वारकापुरी की चौड़ाई आठ योजन थी और लम्बाई बारह योजन अर्थात उसका सम्पूर्ण विस्तार छानबे योजन था। उसका उपनिवेश (समीपस्थ प्रदेश) से दुगुना अर्थात एक सौ बानबे योजन विस्तृत था। श्रीकृष्ण ने उस अविचल द्वारकापुरी का दर्शन किया। उसमें जाने के लिये आठ महामार्ग थे और सोलह बड़े-बड़े चौराहे बने थे। इस प्रकार विभिन्न मार्गों से परिष्कृत द्वारकापुरी साक्षात शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनायी गयी थी। उस पुरी में रहकर स्त्रियां भी युद्ध कर सकती थीं; फिर साक्षात वृष्णिवंशी महारथियों की तो बात ही क्या? उसमें व्यूहों के उत्तम मार्ग हैं। सात बड़ी-बड़ी सड़कें हैं। वहाँ साक्षात विश्वकर्मा ने उन विविध मार्गों का निर्माण किया था। नगरों में श्रेष्ठ उस द्वारकापुरी में यशस्वी दशार्हवंशियों के महल देखकर देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे महल मनुष्यों को हर्ष प्रदान करने वाली सोने और मणियों की सीढ़ियों से अलंकृत थे। महान एवं भयंकर घोषों, महलों तथा सुन्दर आँगनों से शोभा पाने वाले उन महलों के ऊपर ऊँची-ऊँची पताकाएं फहरा रही थीं। उन महलों के भीतर लगे हुए उद्यानों के वृक्ष हवा से झूमते रहते थे। उन महलों के शिखर सोने के कंगूरों या कलशों से सुशोभित हो उद्भासित होते रहते थे। वे गगनचुम्बी रमणीय भवन मेरुपर्वत के शिखरों के समान प्रतीत होते थे। उन महलों के शिखर श्वेत से भी अधिक श्वेत थे। उनमें सोने मढ़े गये थे। वे रत्नमय शिखर गुफा और चोटियों वाले विचित्र पर्वतों के समान शोभा पाते थे। वे गृह पांच प्रकार के रंगों से रंगे गये थे। कितने ही सुनहरे रंग से सुशोभित थे। कुछ गृहों की कान्ति ऐसी जान पड़ती थी, मानो वहाँ फूलों की वर्षा हो रही हो। उन महलों से मेघों की गम्भीर गर्जना के समान शब्द प्रकट होते रहते थे। वे बहुरंगे भवन अनेक रूप वाले पर्वतों के समान जान पड़ते थे। विश्वकर्मा के बनाये हुए वे तेजस्वी भवन दावानल की ज्वाला के समान देदीप्यमान होते थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था मानों वे आकाश में सुनहरी रेखा खींच रहे हों। उनका प्रकाश चन्द्रमा और सूर्य से बढ़कर था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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