हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 95 श्लोक 15-28

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचनवतितम अध्याय: श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद

श्रेष्‍ठ वर्षाकाल और उसमें शयन करने वाले भगवान विष्‍णु को जानने वाली योगनिद्रा निश्‍चय ही लोकोत्‍तर मनोहर रूप धारण करने वाली श्रीदेवी को प्रणाम करके शेष के शरीर के एक देश में सोये हुए मंगलमय ईश्‍वर जगन्‍नाथ उपेन्‍द्र के निकट आयी है। प्रफुल्‍ल कमल के समान विशाल नेत्रों वाली प्रियतमे! भगवान उपेन्‍द्र के योग निद्रा को स्‍वीकार कर लेने पर श्‍वेतकमल के समान अमलकान्ति वाले चन्‍द्रमा अब मेघरूपी अम्‍बर (वस्‍त्र) से आच्‍छादित हो भगवान श्रीकृष्‍ण के मुख का अनुकरण कर रहे हैं। सारी ऋतुएं भगवान श्रीकृष्‍ण से कृपा प्रसाद पाने की अभिलाषा रखकर निश्‍चय ही उनकी सेवा में कदम्‍ब, नीप, अर्जुन और केवड़ों के गजरे तथा दूसरे-दूसरे पुष्‍प ले आती हैं। जिन सुकुमारतर वृक्षों एवं फूलों के रस भ्रमर बारम्‍बार पीते हैं, उन्‍हें विषपूर्ण मुख वाले सर्प स्‍वच्‍छन्‍द विचरते हुए जब छू देते हैं, तब उनके स्‍पर्श मात्र से वे कुम्‍हला जाते हैं। इस प्रकार वे लोगों को अत्‍यन्‍त आश्‍चर्य में डाल रहे हैं। निपान[1]- सदृश गम्‍भीर आकाश को जल के भारी भार से युक्‍त मेघों की घटा द्वारा बँधकर गिरता हुआ-सा देख तुम्‍हारे मनोहर एवं सुन्‍दर मुख, स्‍तन और ऊरु कामोद्रेकवश पसीने से भर गये हैं।

निर्बल अंगयष्टि वाली सुन्‍दरि! जो बगुलों की पाँत से परिपूर्ण होकर मानो श्‍वेत पुष्‍पहार से अलंकृत हुआ है, उस रमणीय मेघ समूह की ओर तो देखो; यह जगत के हित के लिये पृथ्‍वी पर मानो अन्‍न की वर्षा करता है। पानी के आधारभूत मेघ समूहों को अपने साथ खींच लाने वाला पावस समीर बादलों से बादलों को लड़ाता-सा जान पड़ता है; मानो कोई चक्रवर्ती नरेश बल के मद से उन्‍मत्त हुए जंगली हाथियों को अपने गजराजों के साथ लड़ा रहा हो। ये मेघ शुद्ध, पवित्र और सुगन्धित वायु से सुवासित उस दिव्‍य जल की वर्षा करते हैं, जो मेघों के प्रेमी चातक और मोर आदि श्रेष्‍ठ पक्षियों को हर्ष प्रदान करता है। जो बरसात के पहले सोलह पक्षों (आठ महीनों) तक कहीं बिल में शयन करता रहता है, वही मेंढ़क बरसात के आठ पक्षों में गोष्‍ठ (गोसमुदाय) की भाँति अपनी स्त्रियों के साथ आर्तनाद-सा करता है; मानो सत्‍य और धर्म से प्रेम रखने वाला कोई विद्वान ब्राह्मण अपने अच्‍छे शिष्‍यों से घिरकर वेद की ऋचाओं का पाठ कर रहा हो।

वर्षाकाल का यह एक महान गण है कि अज्ञात मेघ-गर्जना को सहसा सुनकर भयभीत हुई प्रियतमाओं को प्रेमी पुरुष हृदय से लगकार शयनकाल के बिना भी उनकी कामवासनाओं को बढ़ा देते हैं। उत्‍तम वंश, सुन्‍दर वर्ण और अच्‍छे स्‍वभाव वाली प्रिये! मुझे अपने लिये वर्षाकाल का यही एक दोष प्रतीत होता है कि तुम्‍हारे मुख के समान शोभा पाने वाले चन्‍द्रमा मेघरूपी ग्रह से ग्रस्‍त होकर (मेघों की घटाओं में छिपकर) दिखायी नहीं देता है। भीरु! जब जगत को प्रकाशित करने वाला चन्‍द्रमा मेघों के भीतर दीख जाता है, तब सब लोग परदेश से लौट आए हुए प्रेमी बन्‍धु की भाँति उसे बड़े हर्ष में भरकर बारम्‍बार देखने लगते हैं। भीरु! प्रिय वियोगिनी वनिताओं के विलाप का साक्षीभूत चन्‍द्रमा जब दृष्टिगोचर होता है, तब जिनके पति परदेश में रहकर लौटे हैं, उन कामिनियों के नेत्रों में अपने प्रियतम का दर्शन करके ही आनन्‍दोत्‍सव प्रतीत होता है, ऐसा मैं समझता हूँ। यह नेत्रोत्‍सव उन्‍हीं को प्रतीत होता है, जिन्‍हें अपने प्रियतम का संयोग प्राप्‍त है; प्रिय वियोगिनी अबलाओें के लिये तो यह चन्‍द्रमा दावाग्नि के तुल्‍य दाहक प्रतीत होता है। इस प्रकार चन्‍द्रमा आह्लादक होने पर भी संयोग और वियोग अवस्‍था के भेद से अपने उसी शरीर द्वारा श्रेष्‍ठ नारियों को प्रिय और अप्रिय प्रतीत होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुएँ के आस-पास पशुओं के लिये जो छोटा-सा जलकुण्ड बनाया जाता है, उसे 'निपान' कहते हैं।

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