हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुःसप्ततितम अध्याय: श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद
श्रीकृष्ण बोले- 'देव! आप ही रोदन (रोना), रावण (रूलाना), अतिशय ‘रव’ तथा जन्म-मरण पूर्व संसार का द्रावण (निवारण) करने के कारण ‘रुद्र’ कहे गये हैं। आप सब देवताओं से बढ़कर हैं। ईश! मैं आपके भक्तों का भक्त तथा स्नेहियों का स्नेही हूँ आप मुझे विजय-कीर्ति का भागी बनाइये। मैं आज आप शरणागत वत्सल प्रभु की शरण लेता हूँ। देवदेव! आप ही ग्रामीण और वन्य पशुओं (जीवों) के पति (पालक) हैं; इसीलिये आप भगवान पशुपति के रूप में विख्यात हैं। यह सारा जगत आपका ही कर्म है। आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। आप ही जगदीश्वर तथा देववीरों के शत्रुओं का हनन करने वाले हैं। आप बड़े बडे़ ईश्वर-कोटि के पुरुषों के भी ईश्वर हैं। आप ही आदिपुरुष, प्रीतिदाता तथा प्राणदाता हैं; इसीलिये सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थतत्त्व को जानने वाले विद्वान साधुपुरुष आपको ही ईश्वर आपको ही ईश्वर तथा ईश कहते हैं। अत्यन्त![1] धीरे![2] अक्षरेश्वर![3] अतः आप अव्यक्त अविनाशी परमेश्वर से ही जगत उत्पन्न हुआ है, अतः विद्वान पुरुष आपको ‘भव’ कहते हैं। वास्तव में तो आप ‘भूत’ (नित्यसिद्ध) हैं। महान सर्वेश्वरों के लिये भी अत्यन्त उदार हैं (फिर दिन दुखियों के लिये तो बात ही क्या)। देव! अतः पराजित हुए समस्त देवताओं, असुरों तथा सम्पूर्ण प्राणियों ने आपका ‘महान ईश्वर’ के पद पर अभिषेक किया है। अतः सभी विद्वान आप विश्वनिर्माता भगवान को ‘महेश्वर’ तथा ‘देवातिदेव’ (देवताओं से बढ़कर महादेव) कहते हैं। अमेय बल-पराक्रम से सम्पन्न वरदायक महेश्वर अतः सदा कल्याण-प्राप्ति की इच्छा रखने वाले अतः आप देवदेव (देवताओं के भी देवता) के रूप में विख्यात थे। सत्पुरुषों के इष्टदेव आप ही हैं; आप समस्तभूतों को अपने भीतर ही उत्पन्न करने वाले हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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