हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 73 श्लोक 38-53

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 38-53 का हिन्दी अनुवाद

कुरूनन्दन! तब प्रवर ने हंसकर सात्यकि से कहा- ‘मनुष्यों में शूर सात्यके! क्षमा करने की आवश्यकता नहीं है। तुम रणभूमि में सारी शक्ति लगाकर युद्ध करो। यादव वीर! मैं भी जमदग्निनन्दन परशुराम का शिष्य हूँ। मेरा नाम प्रवर है और मैं बुद्धिमान इंद्र का सखा हूँ। मधुवंशी वीर! देवता लोग मधुसुदन का सम्मान करते हैं; अतः उनसे युद्ध करना नहीं चाहते हैं; इसलिये मैं आज इन्द्र के सोहार्द का ऋण चुकाने आया हूँ।' नरेश्वर! पुरुषसिंह! तदनन्तर सात्यकि और उस श्रेष्ठ ब्राह्मण में उस समय दिव्य अस्त्रों द्वारा बड़ा भयंकर संग्राम हुआ। जो बढ़ता ही चला गया। राजन! उस अत्यन्त महात्मा वीरों का वह संग्राम चालू होने पर उस समय स्वर्गलोक विचलित हो उठा। सहस्रों आकाशचारी प्राणी कम्पित हो उठे। रणभूमि में श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न वस्त्रधारियों में श्रेष्ठ जयन्त से आगे न बढ़ सके। इन्द्रकुमार जयन्त भी शूरशिरोमणी माया विशारद श्रीकृष्णकुमार महात्मा प्रद्युम्न से अधिक पराक्रम न दिखा सका। नरश्रेष्ठ परस्पर दूसरों को जीतने की इच्छा वाले वे दोनों श्रेष्ठ योद्धा ‘अरे, यह लो, दो मेरे इस प्रहार का उत्तर’ आदि बातें कहते हुए युद्ध करने लगे।

राजन तदनन्तर प्रतापी शचीपुत्र जयन्त ने श्रीकृष्ण-कुमार को सम्बोधित करके उन पर बढ़ी उतावली के साथ दिव्यास्त्र द्वारा आघात किया। अपनी ओर आते हुए उस तेजस्वी अस्त्र को पैने बाणों का जाल-सा फैलाकर प्रद्युम्न ने बीच में ही रोक दिया। वह एक अद्भुत-सी बात हुई। कुरुनन्दन! तदनन्तर युद्ध के मुहाने पर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न के लिये भी दुस्सह प्रतीत होने वाला वह दीप्तिमान दानव-मर्दन दिव्यास्त्र उनके रथ पर गिरा। नरेश्वर! उस अस्त्र के द्वारा महात्मा प्रद्युम्न का रथ जलकर भस्म हो गया तो भी वह भयंकर अस्त्र रुक्मिणीकुमार प्रद्युम्न को दग्ध न कर सका।

प्रजानाथ! अग्नि कितना ही प्रचण्ड रूप क्यों न धारण करे। वह दूसरी अग्नि को नहीं जला सकती (उसी तरह उस अस्त्र की अग्नि से अग्नितुल्य तेजस्वी रुक्मिणीकुमार प्रद्युम्न के शरीर को कोई हानि नहीं पहुँची)। महाबाहु रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न उस जले हुए रथ को छोड़कर अलग हो गये। तदनन्तर रथहीन हुए रथियों में श्रेष्ठ नारायणकुमार प्रद्युम्न आकाश में धनुष लिये खडे़ हो गये और जयन्त से इस प्रकार बोले- 'महेन्द्रकुमार! तुमने मेरे ऊपर जो दिव्यास्त्र छोड़ा है ऐसे सैकड़ों दिव्यास्त्र मुझे मार नहीं सकते हैं। अमरनन्दन! तुम अपनी शिक्षा के अनुसार प्रयत्न करो और सारा यत्न आज मुझे दिखाओ। संग्राम में मुझसे बढ़कर पराक्रम प्रकट करने वाला कोई वीर नहीं हैं। तुम रथ पर बैठकर हाथ में आयुध लिये जब यहाँ आये थे, तब तुम्हें देखकर मुझे कुछ भय हुआ था; परन्तु अब युद्ध में तुम्हारा सारा बल मैने देख लिया है। तुममें बहुत थोड़ा बल है, अतः इस समय में तुमसे भय नहीं मानता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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