हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 64 श्लोक 51-73

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतु:षष्टितम अध्याय: श्लोक 51-73 का हिन्दी अनुवाद


वहाँ गरुड़ से उतरकर वे देवेश्वर इन्द्र से मिले। देवराज इन्द्र ने भी प्रसन्‍नतापूर्वक उनका अभिनन्दन किया। उस समय अपनी महिमा से कभी च्यु‍त न होने वाले पत्नी सहित नरश्रेष्ठ जनार्दन ने वे दोनों दिव्य कुण्डल उन्हें देकर देवप्रवर इन्द्र को प्रणाम किया। देवराज इन्द्र ने नाना प्रकार के रत्नों द्वारा श्रीकृष्ण का आदर-सत्कार किया। इसी प्रकार पुलोकन्या शची ने भी सत्यभामा का यथोचित रुप से अभिनन्दन किया तदनन्तर इन्द्र और भगवान श्रीकृष्ण दोनों ने एक साथ होकर देवमाता अदिति के अत्यंत समृद्धिशाली दिव्य भवन में प्रवेश किया। वहाँ उन दोनों महात्माओं महाभागा तपस्विनी अदिति का दर्शन किया, जिनकी सब ओर से अप्सराएँ उपासना (सेवा) करती थी। वहाँ अदितिनन्दन शचीवल्लभ पुरन्दर इन्द्र ने वे दोनों कुण्डल अपनी माता को दिये और उनके चरणों में प्रणाम किया। इन्द्र ने जनार्दन को आगे करके उनके पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा की। अदिति ने अपने उन दोनों पुत्रों को प्रसन्नतापूर्वक हृदय से लगाकर उनका ‍अभिनन्दन किया और दोनों के लिये अनुकुल आशीर्वाद प्रदान किया। शची और सत्यभामा ने भी बड़ी प्रसन्नता के साथ परमपूजनीया देवी अदिति के सुन्दर चरणों का स्पर्श किया। तब यशस्विनी देवमाता ने उन दोनों से भी प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया।

इसके बाद अदिति ने भगवान जनार्दन से यह यथार्थ बात कही- 'वत्स! तुम सम्पूर्ण भूतों के लिये अजेय और अवध्य होओगे। जैसे ये देवराज इन्द्र हैं, उसी प्रकार तुम भी अपराजित और लोकपूजित होओगे। यह सुन्दरी सत्यभामा सदा प्रियदर्शना, सम्पूर्ण लोकों में विख्यात, दिव्यगन्ध वाली, मनोरमा, सुस्थकर-यौवना, सौभाग्यवती तथा स्त्रियों में उत्तम हो। श्रीकृष्ण‍! जब तक तुम मानव बनकर मनुष्यलोक में रहोगे, तब तक बहू सम्यभामा बूढ़ी नहीं होगी। देवमाता अदिति के द्वारा इस प्रकार सत्कार पाकर देवराज की आज्ञा ले उनसे रत्नों द्वारा पूजित हो महाबली श्रीकृष्ण सत्यभामा सहित गरुड़ पर आरुढ़ हुए और देवर्षियों द्वारा प्रशंसित देवताओं के क्रीड़ा-कानन नन्दवन में सब और घूमने लगे। इन्द्र के उस क्रीड़ावन में महाबाहु श्रीकृष्ण ने पारिजात नामक दिव्य विशाल वृक्ष को देखा, जो देवताओं द्वारा पूजित था। वह दिव्य वृक्ष सदा ही फूल धारण करने वाला, पवित्र गन्ध से सुवासित तथा परम उत्तम था।

उसके पास जाने पर सब लोगों को अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण हो आता था। देवता उस वृक्ष की रक्षा करते थे; परंतु अमित पराक्रमी श्रीकृष्ण ने उसे बलपूर्वक उखाड़कर गरुड़ की पीठ पर रख लिया। वहाँ श्रीकृष्ण तथा सत्यभामा ने दिव्य अप्सराओं के समुदाय को देखा। उन्होंने भी पीछे से दिव्‍य युवती सत्यभामा का दर्शन किया। तदनन्तर वायु सेवित मार्ग से श्रीकृष्ण द्वारकापुरी की ओर चल दिये। महाबाहु देवराज इन्द्र ने जब उस समय श्रीकृष्ण के पारिजात हरणरुपी उस कर्म को सुना, तब यह कहकर उसका अनुमोदन किया कि- ‘श्रीकृष्ण ने मेरा बहुत बड़ा कार्य सिद्ध किया है।’ देवताओं से पूजित और सप्तर्षियों से प्रशंसित हो शत्रुदमन श्रीकृष्ण ने देवलोक से द्वारका को प्रस्थान किया। देवराज से सम्मानित हुए महाबाहु श्रीकृष्ण ने उस विशाल मार्ग को लघु मार्ग की भाँति थोड़ी ही देर में तय करके यादवपुरी को देखा। इन्द्र के छोटे भाई गरुड़वाहन श्रीमान भगवान श्रीकृष्ण वैसा महान कर्म करके द्वारका में चले गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में परिजातहरण और द्वारका में प्रवेश विषयक चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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