हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद
नारद जी से उसको मिले हुए वरदान का समाचार जानकर भी तेजस्वी मधुसूदन ने यवनों के यहाँ पलते हुए उस कालयवन की उपेक्षा कर दी। जब यवनों का राजा महाबली कालयवन समृद्धिशाली हुआ, तब दूसरे नरेश उसकी शरण लेकर उसी का अनुसरण करने लगे। शक, तुषार, दरद, पारद, शृंगल, खस, पह्लव तथा दूसरे-दूसरे सैकड़ों हिमालय-निवासी म्लेच्छ उसके साथ हो गये। शलभों के समान उन अगणित लुटेरों से, जो नाना प्रकार के वेश और आयुध धारण करने के कारण बड़े भयंकर प्रतीत होते थे, घिरा हुआ राजा कालयवन मथुरा पर चढ़ आया। उसके साथ हाथी, घोड़े, गदहे और ऊँट हजारों, लाखों तथा करोड़ों की संख्या में विद्यमान थे। वह उस विशाल सेना से घिरकर इस पृथ्वी को कम्पित कर रहा था। उस राजा ने सेना द्वारा उठी हुई धूल से सूर्य के मार्ग को आच्छादित कर दिया और सैनिकों के मल-मूत्र से नूतन नदी की सृष्टि कर दी। जनेश्वर! घोड़ों और ऊँटों की लीदों के ढेर से वह नदी प्रकट हुई थी, इसलिये उसका नाम 'अश्वदशकृत' हो गया। उसकी विशाल सेना के आगमन का समाचार सुनकर वृष्णि और अन्धक कुल के अगुआ वसुदेवजी सब जाति-भाईयों को एकत्र करके उनसे इस प्रकार बोले- 'बन्धुओं! यह वृष्णि और अन्धक कुल के लिये महान एवं घोर संकट उठ खड़ा हुआ है। पिनाकपाणि भगवान शंकर के वरदान से हमारा शत्रु अवध्य है। उसे शान्त करने के लिये हमने साम आदि उपायों का भी सर्वथा प्रयोग किया है, परंतु वह मद और बल से उन्मत्त होने के कारण केवल युद्ध करने की ही इच्छा प्रकट करता है। नारद जी ने इतने ही समय तक हम लोगों का यहाँ निवास बतलाया था। ऐसे शक्ति-साधन-सम्पन्न शत्रु के प्रति सान्त्वनापूर्ण वचन कहना ही परम उत्तम माना गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज