हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 37-48 का हिन्दी अनुवादनरेश्वरो! भगवान विष्णु की ऐसी ही चेष्टाएँ हुआ करती हैं। अतः आप लोगों का युद्ध के लिये विचार करना अनुचित है। श्रीकृष्ण का यहाँ आना युद्ध के लिये नहीं हुआ है। राजकन्या जिस किसी का भी वरण करेगी, उसी की पत्नी होगी। इसमें झगड़े की कौन-सी बात है। राजाओं में सदा अटल प्रीति बनी रहनी चाहिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उन बुद्धिशाली नरेशों के इस प्रकार कहने पर भी राजा भीष्मक अपने पुत्र के कारण कुछ बोल न सके। वह अपने महान बल के घमंड में भरा रहता था। भार्गवास्त्र से सुरक्षित था और रणभूमि में प्रचण्ड पराक्रम प्रकट करने वाला अतिरथी वीर था। भीष्मक ने मन-ही-मन अपने उस पुत्र का चिन्तन करके इस प्रकार कहा- भीष्मक बोले- मेरा पुत्र सदा बल के घमंड में भरा रहने वाला और अभिमानी है। वह श्रीकृष्ण और उनके प्रभाव को सहन नहीं कर पाता है तथा युद्ध में किसी से डरता नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि श्रीकृष्ण की भुजाओं के बल से कन्या का अपहरण होगा। उस अवसर पर महापुरुष के साथ महान विग्रह एवं युद्ध होकर ही रहेगा। उस अवस्था में श्रीकृष्ण से द्वेष रखने वाला मेरा अभिमानी पुत्र कैसे जीवित रह सकता है। अतः मुझे श्रीकृष्ण के हाथ से यहाँ अपने पुत्र के जीवन की रक्षा होती नहीं दिखायी देती। कन्या के लिये पितरों का आनन्द बढ़ाने वाले अपने ज्येष्ठ पुत्र को केशव के साथ और केशव को अपने पुत्र के साथ युद्ध करने का अवसर कैसे दूँगा। रुक्मी का मनोभाव मूढ़ता से भरा हुआ है। अतः वह भगवान नारायण को रुक्मिणी का वर बनाना नहीं चाहता। वह बल के मद से उन्मत्त रहता और युद्ध से कभी मुँह नहीं मोड़ता है। अतः जैसे आग लगने से रूई का ढेर जल जाता है, उसी प्रकार वह श्रीकृष्ण से भिड़कर निश्चय ही भस्म हो जायगा। विचित्र प्रकार से युद्ध करने वाले अत्यन्त बलवान केशव ने करवीर पुर के शूरवीर राजा श्रृगाल को क्षणभर में धूल में मिला दिया। जब बलवानों में श्रेष्ठ श्रीमान केशव वृन्दावन में रहते थे, उस समय उन्होंने गोवर्धन पर्वत को उठाकर सात दिनों तक उसे एक ही हाथ से धारण कर रखा था। उनके उस दुष्कर कर्म को याद करके मेरा हृदय अत्यन्त शिथिल हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज