हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 46 श्लोक 27-39

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 27-39 का हिन्दी अनुवाद

उन्होंने नूतन जलधर के समान कान्ति वाले दो नीले वस्त्र धारण कर रखे थे और शरीर से वे गोरे थे, अत: अन्धकार राशि में चंद्रमा के समान सुशोभित होते थे। उनके एक हाथ में सर्प शरीर के समान हल शोभा पाता था और दूसरे में प्रकाशमान मुसल। बलवानों में श्रेष्ठ बलराम जी मधु से मत्त–से हो रहे थे। उनका मुख झूम रहा था। वे ऐसे लगते थे, मानो शरद् की रातों में स्वेद–बिंदुओं से युक्त अलसाये हुए चंद्रमा शोभा पाते हों। उस समय बलराम जी ने यमुना से कहा- 'महानदि! मैं स्नान करना चाहता हूँ। सागरगामिनि! मूर्तिमती होकर आओ, चलो मेरे साथ।'

संकर्षण की बात को मतवाले की बहक समझकर नारी–स्वभाव से मोहित हुई उस नदी ने उसकी अवहेलना कर दी। वह उनके अभीष्ट स्थान को नहीं गई। तब बलवान बलराम मद से प्रेरित हो कुपित हो उठे। उन्होंने यमुना का कर्षण करने के लिए हल का मुख नीचे को कर लिया। यमुना को खींचते समय उनके गले से जो कमल–पुष्प की मालाएं टूट कर पृथ्वी पर गिरीं, वे पुष्प-कोशों द्वारा सुगन्धित पराग से अरुण रंग का जल छोड़ने लगीं। जिसका अग्रभाग कुछ झुका हुआ था, उस हल को यमुना तट से लगाकर स्वेच्छाचारिणी वनिता के समीन उस महानदी को अभीष्ट दिशा की ओर खींचा। उसका जल स्रोत क्षुब्ध हो उठा। कुंडों में जो अगाध जल राशि का संचय था, वह वहाँ से निकलने लगा और वह नदी भयभीत–सी होकर हल के बनाए हुए मार्ग से चलने लगी।

हल की रेखा ही उसे गन्तव्य मार्ग का आदेश दे रही थी। सीधे मार्ग पर वेग से बहने वाली वह नदी टेढ़े रास्ते पर मंथर गति से चलने लगी। वह संकर्षण के भय से त्रस्त हुई किसी युवती की भाँति व्याकुल हो उठी थी। दोनों किनारे ही उसके नितम्ब थे, रक्त कमलों का समूह ही उसके अरुण अधरों का प्रतीक था। फेन ही उसके मेखलासूत्र थे, जो जल से तड़ित और मर्दित होकर छिन्न–भिन्न हो गए थे, वह नदी रूपिणी युवती समुद्ररूपी प्रियतम के साथ समागम करने वाली थी। उसके तरंगरूपी शिरोभूषण ऊंचे–नीचे हो रहे थे, चक्रवाक रूपी स्तन ऊंचे उठे हुए थे, उसके गंभीर अंग वेग के कारण वक्र हो रहे थे, वह त्रस्त्र मीनरूपी आभूषणों से विभूषित थी। श्वेत हंस उसके नेत्र और अपांग[1] थे, काश-पुष्प उसके फहराते हुए रेशमी वस्त्र थे, तटवर्ती पौधे या वृक्ष उसके केश थे तथा जल का प्रवाह ही उसकी स्खलित गति का प्रतीक था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नेत्र के अंतभाग।

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