हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 37 श्लोक 58-73

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 58-73 का हिन्दी अनुवाद


वहाँ उन्हें मणिमय कमल का आसन दिया गया, जिस पर पद्मों के दल बिछे हुए थे और पद्य सूत्रों की बनी हुई चादर डाली गयी थी। सर्पों के दिये हुए उस उत्तम आसन पर जब राजा यदु वहाँ विराजमान हुए, तब सर्पराज धूम्रवर्ण ने उनसे शान्तभाव से कहा- 'राजन! तुम्हारे पिता इस विशाल वंश की नींव डालकर और तुम जैसे तेजस्वीे भूपाल को जन्म देकर स्वर्गलोक को चले गये। यदुपुंगव! तुम्हारे नाम से ही यह वंश यादव वंश कहलायेगा। तुम्हारे पिता ने तुम्हारे मंगल के लिये ही इस कुल की स्थापना की है, जो राजाओं की खान है। प्रभो! तुम्हारे इस वंश में देवताओं और ऋषियों तथा नागों की अक्षय सन्तानें मनुष्य योनि में उत्पन्न होंगी।

नृपश्रेष्ठ! मेरी ये जो पांचकुमारी कन्याऐं हैं, उत्तम आचार-व्यवहार से सम्मानित हैं। इनका जन्म यौवनास्व की बहिन के गर्भ से हुआ है। तुम अपने धर्म के अनुसार वैवाहिक विधि से इन कन्याओं को ग्रहण करो। मेरी धारणा के अनुसार तुम वर पाने के योग्य हो, अत: मैं तुम्हें मनोवाञ्छित वर भी दूंगा। तुमसे सात कुल विख्‍यात होंगे, जो भैम, कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव, दाशार्ह तथा वृष्णि वर्ण के नाम से प्रसिद्ध होंगे।' ऐसा कहकर धूम्रवर्ण ने इन्द्रोतुल्य‍ तेजस्वी यदु को कन्याव्रत में स्थित हुईं वे कन्याऐं हाथ में जल लेकर संकल्पपूर्वक दे दीं। फि‍र उन नाग शिरोमणि धूम्रवर्ण ने प्रसन्न होकर समस्त कन्याओं को सुनाते हुए एक उदार पुरुष की भाँति राजा को क्रमश: वर प्रदान किये।

मानद! मेरी इन पांच कन्याओं से तुम्हारे पांच पुत्र उत्प‍न्न होंगे, जो पिता और माता दोनों के तेज से सम्पन्न होंगे। हमारे वरदान से अनुगृहीत होकर तुम्हारे वंश के वे सभी राजा जल के भीतर विचरने वाले तथा इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ होंगे।' वे श्रेष्ठ यदु उस समय वर और उन कन्याओं को पाकर चन्द्रमा के समान वेगपूर्वक जल से ऊपर उठे। पांच कन्याओं के बीच में स्थित हुए राजा यदु वहाँ पांच ताराओं वाले नक्षत्र से युक्त चन्द्रमा के समान दिखाई देते थे। वैवाहित वेश से युक्त तथा दिव्य हार एवं चन्दन धारण करने वाले नृपश्रेष्ठ यदु ने जल से बाहर आकर अपने समस्त अन्त:पुर को वहाँ उपस्थित देखा। तदनन्तर अग्नि के समान तेजस्विनी उन सारी पत्नियों को आश्वासन देकर राजा यदु अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उन सबके साथ अपने नगर को चले गये।'

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अंतर्गत विष्णु पर्व में विक्रदु का वाक्यविषयक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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