हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 35 श्लोक 14-26

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर समस्त राजाओं का स्वामी महातेजस्वी जरासंध कुपित हो सहस्रों नरेश-समुदायों के साथ आगे बढ़ा। कहीं सुन्दर ढंग से सुसज्जित सुन्दर वाहन, रथ युद्धोपयोगी सामग्रियों से सम्पन्न थे। उनमें विशाल एवं प्रचण्ड वेग वाले अश्व जुते हुए थे। उन रथों की गति कहीं भी अवरुद्ध नहीं होती थी। (ऐसे रथों द्वारा रथी योद्धा युद्ध के लिये आगे बढ़ रहे थे।) कहीं बहुसंख्यक हाथी चल रहे थे, जिन्हें सोने की जंजीरों से कसा गया था। उनके दोनों ओर बड़े-बड़े घंटे लटक रहे थे, वे हाथी काले मेघों के समान प्रतीत होते थे। उनके ऊपर अच्छे महावत बैठे थे तथा रणकुशल युद्धाओं– द्वारा उन्हें सुसज्जित किया गया था (उन हाथियों द्वारा गजारोही योद्धा आगे बढ़ रहे थे)। कुछ घुड़सवार योद्धा घोड़ों पर अच्छी तरह सवार थे। उनके वे घोड़े वायु के समान वेगशाली थे और उछलते-कूदते हुए आगे बढ़ते समय आकाश में उड़ते पक्षियों के समान प्रतीत होते थे। बलवानों में श्रेष्ठ सैनिक भी ढाल और तलवार लिये प्रचण्ड रूप धारण करके आगे बढ़ते थे। वे हजार-हजार की टोलियों में एक साथ चलते थे और उछलते हुए सर्पों के समान दिखाई देते थे। इस प्रकार मंडराते हुए बादलों के समान चतुरंगिनी सेनाऐं साथ लेकर वीरव्रत को धारण करने वाला बलवान राजा जरासंध युद्ध के लिये आगे बढ़ रहा था।

वे मेघ के समान गंभीर घर्घर घोष करने वाले रथों, चिग्घाड़ते हुए मतवाले हाथियों, हिनहिनाते हुए घोड़ों तथा गर्जते हुए पैदल सैनिकों द्वारा उस पुरी की सम्पूर्ण दिशाओं तथा वनों को कोलाहलपूर्ण बनाता हुआ आ रहा था। सेना के साथ आता हुआ राजा जरासंध विशाल समुद्र के समान दिखाई देता था। भूमिपालों की वह सेना हष्ट-पुष्ट योद्धाओं से परिपूर्ण थी। गर्जने और ताल ठोकने की गंभीर ध्वनि से वह मेघों की गर्जती हुई घटा के समान प्रतीत होती थी। वायु के समान शीघ्रगामी रथों, मेघों के सदृश दिखाई देने वाले हाथियों, वेगशाली घोड़ों तथा आकाशचारी पक्षियों के समान जान पड़ने वाले पैदल सैनिकों से मिश्रित हुई उस सेना की सब ओर से बड़ी शोभा हो रही थी। मतवाले हाथियों से व्याप्त हुई वह विशालवाहिनी, वर्षा-ॠतु ने समुद्र के भीतर लक्षित होने वाले मेघों के समूह की शोभा धारण करती थी। वे जरासंध आदि समस्त भूपाल अपनी सेना के साथ मथुरापुरी को चारों ओर से घेरकर छावनी डालने की तैयारी करने लगे। वहाँ डेरा डाले हुए जरासंध के सैनिक-शिविरों की शोभा वैसे ही प्रतीत होती थी, जैसा कि शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को अपनी उत्तम तरंगों से परिपूर्ण हुए महासागर का रूप देखने में आता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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