हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 22 श्लोक 62-79

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 62-79 का हिन्दी अनुवाद

जैसे कौवा जिसके सिर पर दोनों पंजे रखकर बैठता है, अपनी मांसलोलुप चोंच से उसी के दोनों नेत्रों पर प्रहार करता है; उसी प्रकार ये वसुदेव भी अपने पुत्र और भाई-बन्‍धुओं सहित मेरे ही पास खाते हैं और मेरी ही जड़ काटते हैं। भ्रूणहत्‍या के पाप से मनुष्‍य तर सकता है, गोवध अथवा स्‍त्रीवध के पाप को भी प्रायश्चित आदि के द्वारा लांघा जा सकता है; परंतु जो कृतघ्न है, विशेषत: अपने भाई-बन्‍धु पर कृतघ्नता करता है, उसके लिये कोई लोक नहीं है- उसका कहीं ठिकाना नहीं लगता। जो भीतर से कृतघ्न रहकर अपना काम बनाने के लिये ऊपर से भयानक प्रीति का बोझ ढोता है, वह शीघ्र ही पतितों के पथ का आश्रय लेता है। जो पापहीन के प्रति अपने हृदय में पापपूर्ण भाव लेकर पाप का ही बर्ताव करता है, उसे नर्क के भयंकर मार्ग पर जाना पड़ता है। नियम, गुण और आचार- इनको सामने रखकर तुम्‍हें किसी को मित्र बनाने की इच्‍छा करनी चाहिये। बताओ, तुम मुझ स्‍वजन को स्‍पृहणीय मानते हो अथवा अपने उस पुत्र को मुझसे भी अधिक श्‍लाघ्‍य समझते हो? हाथियों में भयंकर युद्ध छिड़ जाने पर घास-पात और लता बेलें नष्‍ट होती हैं; फिर युद्ध का विराम होने पर वे हाथी उस महान वन में साथ-साथ खाते-पीते हैं; उसी प्रकार भाई बंधुओं में भेद उपस्थित होने पर जो छिद्र ढूँढ़ने वाला होता है, वही मारा जाता है; भले ही वह स्‍वजन हो या और कोई। वसुदेव! तुम इस कुल के काल हो। मैंने अपने विनाश के लिये ही तुम्‍हें जान-बूझकर पाला-पोसा है। तभी तो तुम मुझसे अत्‍यन्‍त विरोध बढ़ा रहे हो। ओ मूढ़! तुम अमर्षशील (असहिष्‍णु) और स्‍वभावत: वैर रखने वाले हो। तुम्‍हारी बुद्धि सदा पाप में ही लगी रहती है। तुम शठ हो। तुमने जो इस युद्धकुल की शोचनीय अवस्‍था कर दी है, वह उचित ही है।

बूढ़े वसुदेव! मैंने जो तुम्‍हें पुरस्‍कृत किया- सदा अगुआ बनाकर रखा, वह सब व्‍यर्थ हो गया। सिर के बाल सफेद हो जायँ और सौ वर्षों की आयु हो जाय- इतने से ही कोई वृद्ध (श्रेष्‍ठ) नहीं हो सकता, जिसकी बुद्धि परिपक्व हो, वही मनुष्‍यों में वृद्धतर (श्रेष्ठतम या बड़ा-बूढ़ा) माना गया है। तुम्‍हारा स्‍वभाव तो कर्कश (क्रूर) है। तुम बुद्धि से भी बहुश्रुत (अधिक बातों के जानकार) नहीं हो। शरद्-ऋतु के बादल की भाँति केवल अवस्‍था में ही बूढ़े हो (अनुभव में नहीं)। इतना ही नहीं, व्‍यर्थ बुद्धि रखने वाले वसुदेव! तुम यह अच्‍छी तरह समझने लगे हो कि कंस के मर जाने पर मेरा बेटा मथुरा का पालन करेगा- वही यहाँ का राजा होगा। परंतु तुम्‍हारी यह आशा छिन्‍न-भिन्‍न हो जायेगी। तुम व्‍यर्थ ही बूढ़े हुए। तुमने झूठे ही ऐसा विचार किया है। अरे! जो मेरे सामने प्रतिद्वन्‍दी बनकर खड़ा हो, उसके विषय में यह समझना चाहिये कि वह जीवित रहना नहीं चाहता। मैंने सदा तुम्‍हारा विश्वास किया और तुमने दुष्टतापूर्ण चित्त से मुझ पर प्रहार करने की अभिलाषा की। इसका बदला मैं तुम्‍हारे दोनों पुत्रों से लूँगा और तुम उसे अपनी आंखों से देखोगे। मैंने पहले कभी भी किसी बूढ़े का, ब्राह्मण का अथवा स्‍त्री का वध नहीं किया है तथा न आगे ही ऐसा करूँगा; विशेषत; अपने बन्‍धु बान्‍धव पर तो मैं हाथ उठाऊँगा ही नहीं। वसुदेव! तुम यहीं पैदा हुए, यहीं बढ़े और मेरे पिता ने ही तुम्‍हें पाल-पोसकर बड़ा किया। तुम मेरी चचेरी बहिन के पति हो और यदुवंशियों में सर्वश्रेष्ठ गुरुरूप माने जाते हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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