हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 127 श्लोक 82-102

Prev.png

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 82-102 का हिन्दी अनुवाद


अनघ! अथवा वे क्रोध आदि विकार विकारों (दुष्टों) के विकार (विनाश) के लिये ही होते हैं, आपको विकृत करने के लिये नहीं। आप सदा उन अधर्मवेत्ता मूढ़ पुरुषों का ही विनाश किया करते हैं (सत्पुरुषों का नहीं)। यह जगत जब प्राकृत दोषों तथा तमोगुण से ग्रस्त होकर अपना विवेक खो बैठता है अथवा रजोगुण से संयुक्त होकर संग्रह-परिग्रह में व्यग्र हो जाता है, तब उस पर मोह छा जाता है। आप स्वयं प्रजापति के समान कार्य और कारण के ज्ञाता, सर्वज्ञ तथा ऐश्वर्य विधि का आश्रय लेकर स्थित हैं, फिर भी हम सब लोगों को मोह में क्यों डाल रहे हैं?' वरुणदेव के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण जगत के आश्रय, हार्दिक भाव के ज्ञाता, सर्वस्रष्टा एवं धीर स्वभाव वाले भगवान श्रीकृष्ण मन-ही-मन उन पर बहुत प्रसन्न हुए, उनकी पूर्वोक्त बात सुनकर वे हँसते हुए उनसे इस प्रकार बोले। श्रीकृष्ण ने कहा- 'भयानक पराक्रमी वीर! तुम इस विवाद की शान्ति के लिये ये गौएँ मुझे दे दो।' श्रीकृष्ण के ऐसी बात कहने पर बातचीत करने में कुशल वरुणदेव पुन: इस प्रकार बोले- 'मधुसूदन! पहले मेरी बात सुन लीजिये।'

वरुण ने कहा- 'देव! मैंने पूर्वकाल में बाणासुर के साथ एक प्रतिज्ञा की है, वह प्रतिज्ञा करके उसके विपरीत आचरण द्वारा मैं उसे निष्फल कैसे कर सकता हूँ। प्रतिमा तोड़ने वाला कैसा होता है, इन सब बातों को आप ही सबसे अधिक जानते हैं। प्रतिज्ञा तोड़ने से चरित्र कलंकित होता है और साधु पुरुष उसकी प्रशंसा नहीं करते। मधुसूदन! धर्मात्मा पुरुष प्रतिमा भंग करने वाले मनुष्य को सदा के लिये त्याग देते हैं, वह पापी उत्तम लोकों को नहीं पाता है। मधुसूदन! प्रसन्न होइये! मेरे धर्म का लोप न हो! माधव! मुझे प्रतिज्ञा भंग के पाप से संयुक्त न कीजिये। वृषभ के समान विशाल नेत्रों वाले गोविन्द! मैं जीते जी इन गौओं को नहीं दूँगा। आप मेरा वध करके इन्हें ले जाइये। पूर्वकाल में मैंने यही प्रतिज्ञा की है। मधुसूदन! महाबाहो! यह मैंने अपनी प्रतिज्ञा कह सुनायी। सरेश्वर! यह सर्वथा सत्य ही है, मिथ्या नहीं है। महाबाहु मधुसूदन! यदि मैं आपके अनुग्रह का पात्र हूँ तो आप मेरी रक्षा कीजिये अथवा गौओं के लिये ही आग्रह हो तो मुझे मारकर इन्हें ले जाइये।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वरुणदेव के ऐसा कहने पर यदुवंश की वृद्ध‍ि करने वाले भगवान श्रीकृष्‍ण ने उनकी प्रतिज्ञा को अभेद्य मानकर गौओं के लिये विवाद त्याग दिया। व्यवहारकुशल श्रीकृष्ण उस समय हँसकर बोले- 'यदि आपने बाणासुर के साथ ऐसी प्रतिज्ञा कर ली है तो अब आप इस कलह से मुक्त हैं।' फिर वे विनययुक्त मधुर वचनों तथा तात्त्विक अर्थ से युक्त मीठी बातों द्वारा उन्हें प्रसन्न करते हुए बोले- 'प्रभो! वरुणदेव! मैं आपके प्रति दुर्व्यवहार कैसे करूँगा। वरुणदेव! जाइये, अब आप मुक्त हैं। सत्यप्रतिज्ञ होने के साथ ही हमारे सम्बन्धी हैं, आपका प्रिय करने के लिये मैंने बाणासुर की गौओं को छोड़ दिया, इसमें संशय नहीं है।' तदनन्तर वाद्यों की ध्वनि और डंकों की बड़ी भारी आवाज के साथ वरुणदेव ने अर्घ्य लेकर श्रीकृष्ण का पूजन किया। यदुनन्दन श्रीकृष्ण ने वरुण से वह अर्ध्‍य लेकर उनकी पूजा स्वीकार की। तत्पश्चात वरुणदेव ने सकुशल पुरुष की भाँति एकाग्रचित्त हो बलभद्र जी का पूजन किया। फिर प्रतापी शूरनन्दन श्रीकृष्ण वरुणदेव को अभयदान देकर शचीपति इन्द्र के साथ द्वारका को प्रस्थित हुए। वहाँ सम्पूर्ण भूतों के आदिकारण, अविनाशी, भूतनाथ श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे देवता, मरूद्गण, साध्यगण, सिद्ध, चारण गन्धर्व, अप्सरा तथा किन्नर भी आकाश मार्ग से चल रहे थे।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः