हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षड्-विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 158-164 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तब महेश्वरदेव ने बाणासुर से कहा- ‘बाण! ऐसा ही होगा, तुम मेरा आश्रय ग्रहण करने के कारण शरीर से अक्षत और नीरोग रहोगे। तुम्हारा रूप दिव्य हो जायेगा। विख्यात बल और पोरुष से युक्त बाणासुर! तुम मेरे दिये हुए वर के प्रभाव से निर्भय हो जाओ, तुम्हें कहीं से कोई भय न रहे। अब मैं तुम्हें पुन: पाँचवाँ वर देता हूँ, तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे मन मैं जैसी इच्छा हो, उसके अनुसार फिर कोई वर माँगो’। बाणासुर बोला- देव! शंकर! मेरे शरीर में कभी कुरुपता न रहे, दो बाँहों से युक्त होने पर भी मेरी देह कुरूप न प्रतीत हो। श्रीमहादेव जी बोले- महासुर! तुम जैसा चाहते हो, यह सब तुम्हारे लिये सुलभ होगा। मेरे पास भक्तों के लिये कुछ भी अदेय नहीं है। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब महादेव जी ने अपने पास खड़े हुए बाणासुर से कहा- ‘वत्स! तुमने जो कुछ कहा या माँगा है, वह सब इसी रूप में पूर्ण होगा। ऐसा कहकर अपने गणों से घिरे हुए त्रिनेधारी भगवान शिव समस्त प्राणियों के देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अर्न्तगत विष्णु पर्व में उषाहरण के प्रसंग में बाणासुर को भगवान शिव का वरदान विषयक एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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