हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 122 श्लोक 61-79

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वाविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 61-79 का हिन्दी अनुवाद

तब संकर्षण ने भगवान मधुसूदन से कहा- ‘कृष्ण! कृष्ण! महाबाहो! पुरुषोत्तम! यह जो सेना दिखायी देती है, रणभूमि में इसके सैनिकों के साथ मैं युद्ध करना चाहता हूँ’। श्रीकृष्ण बोले- ‘मेरे मन में भी ऐसा विचार उत्पन्न हुआ है।’ ऐसा कहकर वे पुन: उनसे बोले- 'भैया! रणभूमि में इन श्रेष्ठ योद्धाओं के साथ मैं युद्ध करना चाहता हूँ। पूर्वाभिमुख होकर युद्ध करते समय मेरे आगे-आगे तो गरुड़ रहें, बायीं ओर प्रद्युम्न हों और दाहिनी ओर आप रहें। इस घोर महायुद्ध में एक-दूसरे की रक्षा करनी चाहिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! परस्पर ऐसी बातचीत करके पक्षिप्रवर गरुड़ पर चढ़े हुए वे तीनों वीर युद्ध करने लगे। पर्वत के शिखरों की भाँति भयंकर गदा, मुसल और हल से युद्ध करते हुए रोहिणीकुमार बलभद्र का रूप उस समय वैसा ही भयंकर हो उठा, जैसा कि प्रलयकाल में सम्पूर्ण भूतों को दग्‍ध कर देने की इच्छा वाले काल का रूप होता है। युद्धमार्गों के विशेषज्ञ अत्यन्त बलशाली बलराम रणभूमि में सब ओर विचरने लगे। वे हल के अग्रभाग से शत्रुओं को खींचकर उन्हें मुसल से मार गिराते थे।

पुरुषसिंह महाबली प्रद्युम्न ने बाणों का जाल-सा बिछाकर वहाँ जूझते हुए दानवों को सब ओर से ढक दिया। चिकनी अंजनराशि के समान कान्तिमान जनार्दन अपने हाथों में शंख, चक्र और गदा लिये हुए थे। वे बारम्बार शंख बजाकर युद्ध करने लगे। बुद्धिमान विनतानन्दन गरुड़ ने बहुत से दानवों को पंजों और चोंच के अग्रभाग से विदीर्ण करके तथा कितनों को पंखों के प्रहार से हताहत करके यमलोक पहुँचा दिया। उन चारों के द्वारा मारी जाती हुई भयानक पराक्रम वाली दैत्‍य-सेना के पाँव उखड़ गये। वह युद्धस्थल में बाणों की वर्षा से क्षत-विक्षत हो गयी थी। जब इस प्रकार सारी सेनाएँ भागने लगीं, तब उनकी रक्षा करने के लिये त्रिशिरा नामक ज्वर सामने आया। उसके तीन पैर, तीन सिर, छ: बाँहें और नौ आँखें थीं। भस्म ही उसका आयुध था। वह काल, अन्तक और यम के समान भयंकर दिखायी देता था। वह जब सिंहनाद करता, तब गर्जते हुए हजारों मेघों के समान प्रतीत होता था। उसकी आवाज वज्र की गड़गड़ाहट के समान जान पड़ती थी।

वह बारम्बार लम्बी साँस खींचता और जँभाई लेता था। उसका शरीर निद्रा से अत्यन्त आकुल प्रतीत होता था। वह बारम्बार घूमता और अपने दानों नेत्रों से युक्त मुख को व्यथा से व्याकुल बना लेता था। उसके रोंगटे खड़े हो रहे थे। नेत्र आदि इन्द्रियाँ गली जा रही थीं। वह भग्नचित्त (हतोत्साह) सा होकर साँस लेता था। उसने क्रोध में भरकर हलधर से यह आक्षेपयुक्त बात कही- ‘तुम क्यों इस प्रकार बल से उन्मत्त हो रहे हो? क्या इस युद्ध स्थल में तुम मुझे नहीं देखते हो? खड़े रहो, खड़े रहो! आज इस युद्ध के मुहाने पर तुम मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकोगे।' ऐसा कहकर जोर-जोर से हँसते हुए त्रिशिरा ने हल नामक आयुध धारण करने वाले बलराम जी पर आक्रमण किया। वह प्रलयाग्नि के समान अपने भयानक मुक्कों से भय उत्पन्न कर रहा था। रोहिणीकुमार बलभद्र वहाँ संग्राम में सहस्रों पैंतरे बदलते हुए शीघ्रतापूर्वक विचर रहे थे। अत: कहीं उनका ठहरना उसे नहीं दिखायी दिया। तब उस अप्रतिम बलशाली ज्वर ने बड़ी फर्ती से उनके ऊपर भस्म फेंका, जो उनके पर्वताकार शरीर में छाती पर जाकर गिरा। वह भस्म उनकी छाती से मेरुपर्वत के शिखर पर आ गिरा। वहाँ गिरते ही वह प्रज्वलित हो उठा और उसने उस पर्वत शिखर को विदीर्ण कर डाला।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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