हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 116 श्लोक 40-59

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षोडशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद

आपके नेत्र आश्चर्य से खिल उठे हैं। आप अत्‍यन्‍त हर्ष से प्रेरित होकर बोल रहे हैं। मैं यहाँ आपके मुख से सुनना चाहता हूँ कि आपने देवाधिदेव महादेव जी की कृपा और महात्मा स्कन्द के प्रसाद से कौन-सा वर प्राप्त किया है? महान असुर! आपने भगवान नीलकण्ठ के कृपा प्रसाद और स्वामी स्कन्द के संरक्षण द्वारा कौन-सा अभीष्ट वर प्राप्त किया है, यह मुझे बताइये। क्या भगवान शूलपाणि ने आपको तीनों लोकों का राज्य दे दिया? क्या देवराज इन्द्र आपके भय से पाताल लोक को चले जायँगे? क्या दिति के पुत्र अब भगवान विष्णु का भय त्याग देंगे? क्या आपके बल का सहारा लेकर बड़े-बड़े असुर पाताल का निवास छोड़कर स्वर्गलोक में वास करेंगे। राजन! क्या आपके पिता राजा बलि, जो विष्णु के पराक्रम से अभिभूत हो पाताल में बँधे हुए हैं, समुद्र की जलराशि से बाहर निकलकर पुन: त्रिलोकी का राज्य प्राप्त करेंगे?

तात! क्या हम लोग तुम्हारे पिता विरोचनकुमार बलि को पुन: दिव्य माला, दिव्य वस्त्र, दिव्य पुष्पों के हार, दिव्य गन्ध तथा दिव्य अनुलेपन धारण किये देखेंगे? प्रभो! पहले विष्णु के तीन पगों द्वारा जो हर लिये गये थे, उन्हीं इन तीनों लोकों को क्या हम पुन: समस्त देवताओं को पराजित करके लौटा लायँगे? जिनकी वाणी का घोष मेघ गर्जना के समान स्निग्‍ध एवं गम्भीर है तथा जिनके आगे उनका शंखनाद वेगपूर्वक चलता है, उन युद्धविजयी नारायणदेव को क्या हम लोग जीत सकेंगे? तात! क्या भगवान वृषभध्वज आपके प्रति कृपा करने के लिये प्रसन्नमुख हुए हैं? आपके हृदय में जैसा कम्प हो रहा है और नेत्रों से जिस प्रकार आनन्द के आँसू झर रहे हैं, उनको देखते हुए पूर्वोक्त बातों का ही अनुमान होता है। क्या भगवान शिव के संतोष और कार्तिकेय की सम्मति से आपने हम सब लोगों के लिये राज्य-सम्पत्ति प्राप्त की है? तब कुम्भाण्ड की ऐसी बातों से प्रेरित होकर वक्ताओं में श्रेष्ठ असुर प्रवर बाण ने अस्खलित वाणी में कहा।

बाणासुर बोला- कुम्भाण्ड! चिरकाल से मुझे युद्ध नहीं प्राप्त हो रहा था, इसलिये मैंने प्रतापी भगवान नीलकंठ से प्रसन्नतापूर्वक पूछा- 'देव! मेरे मन में युद्ध की बड़ी अभिलाषा हो रही है क्या मैं कभी ऐसा युद्ध प्राप्त करूँगा, जो मेरे मानसिक संतोष को बढ़ाने वाला हो।' मेरी यह बात सुनकर शत्रुघाती देवाधिदेव महादेव ने देर तक हँसकर मुझ से यह प्रिय वचन कहा- 'बाणासुर! तुम्हें ऐसा महान युद्ध प्राप्‍त होगा, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। दितिनन्दन असुर! जब तुम्हारा मयूरध्वज टूटकर गिर जायगा, तब तुम्हें महान युद्ध का अवसर प्राप्त होगा।' तब मैं अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो भगवान वृषभध्वजदेव को सिर झुकाकर प्रणाम करके तुम्हारे पास आया हूँ। बाणासुर के ऐसा कहने पर कुम्भाण्ड ने उस असुरराज से कहा- 'अहो राजन! आप जो ऐसी बात कह रहे हैं, इसका परिणाम अच्छा नहीं है।' वे दोनों वहाँ आपस में ऐसी बातें कर रहे थे कि इतने में ही बाणासुर का ऊँचा ध्वज इन्द्र के वज्र से आहत हो बड़े वेग से गिर पड़ा। अपने उस उत्तम ध्वज को टूटकर गिरा हुआ देख बाणासुर को अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ और उसे यह विश्वास हो गया कि अब युद्ध का अवसर आना ही चाहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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