हरि हौ बहुत दाउँ दै हारयौ।
अज्ञाभंग होइ क्यौ मोपै, बचन तिहारौ पारयौ।।
हारि मानि उठि चल्यौ दीन ह्वै मानि अपुन तन खेद।
जानि लियौ थोरै मैं थोरौ, प्रेम न रोकै बेद।।
ऊतर कौ ऊतर नहिं आवै, तब उनही मिलि जात।
मेरी बात कहा, ब्रह्मा हू, अर्ध बचन मैं मात।।
अपनी चाल जानि मनही मन, चल्यौ बसीठी तोरि।
‘सूर’ एकहू अंग न काँची, मैं देखी टकटोरि।।4128।।