हरि हौं सब पतितनि-पतितेस -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग कान्‍हरौ




हरि, हौं सब पतितनि-पतितेस।
और न मरि करिबे कौ बूजौ, महामोह मम देस।
आसा कै सिंहासन बैठ्यौ, दंभ-छत्र सिर तन्‍यौ।
अपजस अति नकीब कहि टेरयौ सब सिर आयसु मान्‍यौ।
मंत्री काम-क्रोंध निज दोऊ अपनी अपनी रीति।
दविध-दंद रहै निसि-बासर, उपजावत बिपरीति।
मोदी लोभ, खवास मोह के , द्वारपाल अहँकार।
पाट बिरध ममता है मेरै, माण कौ अधिकार।
दासी तृष्‍ना भ्रमत टहल-हित, लहत न छिन विश्राम।
अनाचार-सेवक सौं मिलिकै करत चबाइनि काम।
बाजि मनोरथ, गर्व मत्त गज, असत-कुमत रथ-सूत।
पायक मन, बानैत अधीरज, सदा दुष्‍ट-मति दूत।
गढ़वै भयौ नरकपति मोसौं, दीन्‍हे रहत किवार।
सेना साथ बहुत भाँतिन की, कीन्‍हे पाप अपार।
निंदा जग उपहास करत, मग बंदीजन जस गावत।
हठ, अन्‍याय, अधर्म, सूर नित नौबत द्वार बजावत।।।141।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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