हरि हौं महापतित अभिमानी -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राम धनाश्री



हरि हौं महापतित, अभिमानी।
परमारथ सौं विरत, विषय-रत भाव-भगति नहि नैंकहु जानी।
निसि-दिन दुखित मनोरथ करि करि, पावतहूँ तृप्‍ना न बुझानी।
सिर पर मीच, नीच नहिं चितवत, आयु घटत ज्‍यौं अंजुलि-वानी।
बिमुखनि सौ रति जोरत दिन-प्रति, साधुनि सौ न कवहुँ पहिचानी।
तिहि बिन रहत नहीं निसि-बासर जिहि सब दिन रस-विषय बखानी।
माया-मोह-लोभ के लीन्‍है, जानी न वृंदावन रजधानी।
नवल किशोर, जलद-तनु सुंदर, विसरयो सुर सकल दुख-दानी।।।149।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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