हरि मोकौ हरिभख कहि जु गयौ।
हरि दरसन हरि मुदित उदित हरि, हरि ब्रज हरि जु लयौ।।
हरिरिपु ता रिपु ता पति कौ सुत, हरि बिनु प्रजरि दहै।
हरि कौ तात परस उर अंतर, हरि बिनु अधिक बहै।।
हरितनया सुधि तहाँ वदति हरि, हरि अभिमान न ठायौ।
अब हरि दबन दिवा कुबिजा कौ, 'सूरदास' मन भायौ।। 3389।।