हरि कौं टेरति है नंदरानी।
बहुत अबार भई कहँ खेलत, रहे मेरे सारँगपानी|
सुनतहिं टेर, दौरि तहँ आए, कब से निकसे लाल।
जेंवत नही नंद तुम्हरे बिनु, बेगि चलौ, गोपाल।
स्यामहिं ल्याई महरि जसोदा, तुरतहिं पाइँ पखारे।
सूरदास प्रभु संग नंद कै बैठे हैं दोउ बारे।।237।।