स्याम सखनि ऐसैं समुझावत।
ब्रज-बनिता राधा, ललितादिक, देखि बहुत सुख पावत।।
काल्हि जात इहिं मारग देखीं तब बुद्धि उपाई।
अब आवति ह्वैहैं बनि-बनि सब, मोहीं सौं चित लाई।।
तुमसौं कछू दुरावत नाहीं, कहत प्रगट करि बात।
सुनहु सूर लोचन मेरे, बिनु राधा-मुख अकुलात।।1496।।