स्याम वियोग सुनौ हो मधुकर, अँखियाँ उपमा जोग नहीं।
कज, खंज, मृग, मीन होहिं नहिं, कवि जन वृथा कही।।
कंजनहूँ की लगति पलक दल, जामिनि होति जही।
खंजनहूँ उड़ि जात छिनक मैं, प्रीतम जही तही।।
मृग होते रहते सँग ही सँग, चंद बदन जितही।
रूप-सरोवर के बिछुरे कहुँ, जीवत मीन महीं?
ये झरना सी झरत सदा हैं, सोभा सकल वही।
'सूरदास' प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, अब कत साँस रही।।3571।।