स्याम-अँग जुवती निरखि भुलानीं।
कोउ निरखति कुंडल की आभा, इतनेहि माँझ बिकानी।
ललित कपोल निरखि कोउ अटकी, सिथिल भई ज्यौं पानी।
देह-गेह की सुधि नहिं काहूँ, हरषति कोउ पछितानी।
कोउ निरखति रही ललित नासिका, यह काहू नहिं जानी।
कोउ निरखति अधरनि की सोभा, फुरति नहीं मुख बानी।
कोउ चक्रित भई दसन-चमक पर, चकचौंधी अकुलानी।
कोउ निरखति दुति चिबुक चारु की, सूर तरुनि बिततानि।।644।।